जब घास का गट्ठर लिए वह घर के दरवाजे पर पहुँचा तो सामने आंगन में गोबर पाथती सोनमतिया पर उसकी नजर पड़ी । उसने चुपचाप आगे बढ़कर आँगन के एक कोने में सिर के बोझ को हल्का किया और धम्म से जमीन पर बैठकर सुस्ताने लगा । सोनमतिया एकटक उसके चेहरे को देखे जा रही थी । वह खामोश माथे पर हाथ रखे बैठा था ।
जब चुप्पी असह्य हो गई तो सोनमतिया ने पूछा, " कहाँ थे आज दिनभर..? न तो मलिकवा के काम में गए और न ही घर खाना खाने आए? "
" गला सूखा जा रहा है, कुछ पानी - वानी भी दोगी या जवाब सवाल ही करती रहोगी। " -- माथे पर चू आए पसीने को गमछे से पोंछते हुए उसने पत्नी को झिड़का।
तेजी से वह उठी और हाथ धोकर कोने में रखे घड़े से पानी ढालकर लोटा उसकी ओर बढ़ाते हुए फिर सवाल किया, " सुना है, आज तुम मलिकवा से लड़ आए हो ? "
" अरे, हम क्या लड़ेंगे, हम तो ठहरे जन्मजात गुलाम! हमारी क्या बिसात जो मालिकों से लड़ें - भिड़ें ! " -- डूबती आवाज में बोला हरचरना और लोटा लेकर गटागट एक ही सांस में पूरा पानी पी गया।
अब सोनमतिया को बुधिया काकी की बातों पर अविश्वास न रहा। खाना परोसते हुए उसने आश्वासन देते हुए कहा, " चिंता मत करियो। गाँव में एक मुखिया ही तो नहीं, और भी गिरने हैं। कहीं भी कमाकर गुजारा कर ही लेंगे। "
सुबह का भूखा था हरचरना। सामने खाना देखा तो भूख और भी तेज हो गई। लेकिन जैसे ही हाथ का कौर मुंह की ओर ले जाने को हुआ, सुबह की पूरी घटना आंखों के आगे घूम गई।
सोनमतिया की बीमारी की वजह से वह कई दिनों तक काम पर नहीं गया था। आज सुबह जैसे ही मुखिया की नजर उस पर पड़ी, वे आपे से बाहर हो गए, " तुम...! यहाँ क्यों आए हो हरामखोर ? निकल जाओ मेरे घर से.... सच ही कहा गया है, अगहन चढ़े राड़ा बौराए। इतना भी ख्याल न था ससुरे को... कि जो खलिहान में लाया है, उसे मल मूल कर हवेली भी ले जाना है। दादा के बेख पर चला गया था मादर.....! "
इतनी भद्दी भद्दी गालियाँ और वह भी सरेआम। जब असह्य हो गया तो एकबार टोका था उसने, " मालिक, माना कि मेरी गलती है, आप इसकी जो सजा दीजिए, परंतु गालियाँ मत दीजिए...! "
खून उतर आया था मुखिया की आंखों में। गुस्से में कांपते हुए वे चीख पड़े, " मुंह लगता है बदजात ! नीच, कमीना ! जवाब देता है... राख लगाकर जीभ बाहर खींच लूंगा। हरामखोर ! पूरे खानदान को जलाकर राख कर दूंगा, " ... कुछ क्षण रुके थे वे , फिर बोले थे --" सजा चाहिए तो सुनो, आज से तुम मेरे बनिहार न रहे और जबतक मेरा पूरा पैसा ब्याज सहित नहीं लौटाते, तबतक इस गाँव में किसी और गिरहत के घर भी तुम काम नहीं कर सकते। और दूसरी बात, आज के बाद तुम मेरे खेत की किसी भी मेंड़ पर नजर आए तो हाथ - पांव तोड़ कर रख दूंगा, समझे ? "
मुखिया जी की ऊंची आवाज सुनकर वहाँ एक अच्छी खासी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। हरचरना ने सजा सुनकर एकबार अपने चारो ओर देखा। सबलोग खामोश। सबके चेहरे भाव- शून्य। उसे लगा जैसे अचानक किसी ने उसे रेगिस्तान के गर्म बालू पर फेंक दिया है। वह पसीने से तर-ब - तर हो गया। साहस बटोर कर उसने बस इतना कहा, " लेकिन मालिक, मेरी चैती फसल तो अभी.......। "
" चैती - वैती कुछ नहीं, तुम्हारे काम पर न आने से मेरा जो नुकसान हुआ है, उसके एवज में रह गई वह। और एक बार फिर सुन लो, आगे कभी मेरे खेत के आस-पास भी नजर आए तो बहुत बुरा होगा। " -- इतना कहकर मुखिया जी मुड़े और दालान के भीतर चले गए।
हरचरना ने एक नजर भीड़ पर डाली, मानो उसकी आंखें पूछ रही हों --- भीखू काका, नथुनी भाई.... आपलोग खामोश क्यों हैं ? क्या यही न्याय है इस गाँव का ? क्या एक गरीब को भूख से मरते देखकर भी आपलोग यूँ ही खामोश रहेंगे ?
मुखिया जी के जाते ही भीड़ छंटने लगी थी। हरचरना अंदर ही अंदर धुआँ कर रह गया था, बरसात में भींगे उपलों की तरह।
" क्या सोंच रहे हो? " सोनमतिया की आवाज ने उसे चौंका दिया।
" आं... ऊँ.... नहीं...... कुछ नहीं। "
हाथ के कौर को पुनः थाली में रखते हुए उसने लोटा उठाया और हाथ धोकर आंगन में बिछी खाट पर लेट गया। पति की उदासी ने सोनमतिया को उद्वेलित कर दिया। सिरहाने के पास जमीन पर बैठती हुई उसने पूछा, " एक कौर भी नहीं खाये, आखिर बात क्या है ? "
" तुम तो ऐसे पूछ रही हो, जैसे तुम्हें कुछ मालूम ही नहीं! अरे, सारा गाँव जानता है कि सरेआम बेइज्जती कर के मुखिया ने मुझे अपने चौखट से भगाया है... " बिफर कर बोला हरचरना, " जानती हो अब अपने खेत की चैती फसल पर भी हमारा अधिकार नहीं रहा। रोपें - बोयें हम और फसल काटकर ले जाए मुखिया ! यह कैसा न्याय है ? पर, गाँव के सबलोग चुप हैं। मुखिया के खिलाफ बोलने का साहस किसी भी माई के लाल में नहीं है। सब के सब डरपोक हैं, कायर हैं......। " इतना कहते - कहते उसका मुंह कड़वा सा हो गया।
" जाने दो, सब ले जाने दो, एक न एक दिन हमारी हाय तो पड़ेगी ही उस पर। देखना, एकदिन यह गाज बनकर गिरेगी उस निपूते के घर पर। " -- पति के बालों को सहलाते हुए उसने कहा।
कुछ देर तक हरचरना चुपचाप शून्य में यूँ ही घूरता रहा। फिर सन्नाटे को तोड़ते हुए उसने दृढ़ता से कहा, " लेकिन इतनी आसानी से वह हमारा हक नहीं छीन सकता। अपनी चैती काटकर तो हम लायेंगे ही, चाहे इसके लिए खून - खराबा ही क्यों न हो । "
" नहीं - नहीं, ऐसा हरगिज न करना। जानते नहीं हो, मुखिया गाँव का जेठरैयत है। इलाके का नामी - गिरामी आदमी। हम उसकी बराबरी नहीं कर सकते। " --- भावी विपत्ति की आशंका से वह अंदर तक सिहर गई। हरचरना चुपचाप आकाश की ओर देखने लगा।
आधा फागुन बीत चुका था। हल्की ठंडी पछुआ हवा धीरे - धीरे चल रही थी। पर हरचरना के भीतर जैसे कुछ दहक सा रहा था। सोनमतिया के लाख मना करने के बावजूद वह आंगन में टूटी खाट पर ही लेटा आकाश की ओर घूरता रहा। रह - रहकर उसे सुबह की घटना याद हो आती और उसका खून खौल उठता।
वह जानता है कि मुखिया से टकराना कोई बच्चों का खेल नहीं है। उसका नाम इलाके के उन चंद काश्तकारों में आता है, जिन्हें हर तरह का सरकारी संरक्षण प्राप्त है और जो सरकारी नियमों को ताक पर रखकर अपनी मनमानी किया करते हैं। ये वही मुखिया जी हैं, जिनका बाप कभी अंग्रेजों का गुमाश्ता थे। जबतक अंग्रेजों की चलती रही वे उनका तलवा चाटते रहे और जब गांधी की आंधी चली तो उसकी रौ में बह कर अपना ह्रदय परिवर्तन कर लिया। रातों रात खद्दर पहनकर राष्ट्रीय नेताओं के साथ अगली कतार में खड़े हो गए। कितनी लाठियां खाईं ? कितनी बार जेल गए ? पर, आजादी के बाद जब पंचायती राज कायम हुआ तो उन्हें बतौर तोहफा मुखिया का पद प्राप्त हो गया। उसके बाद से आजतक मुखिया का वह खिताब इस परिवार के सदस्य के सिवा और किसी को हासिल न हुआ है।
धन का आकर्षण कहिए या उस दरवाजे का भाग्य कि गाँव के कर्मचारी से लेकर अंचलाधिकारी तक, चौकीदार से लेकर थानेदार तक, अभिनेता से लेकर राजनेता तक इस इलाके में जो भी आता है, मुखिया जी के ही दरवाजे पर ठहरता है। तभी तो भूमि हदबंदी कानून का कोई असर नहीं पड़ा है इन पर। दूसरे सूद का कारोबार भी धड़ल्ले से चलता है। सवाई, ड्योढ़िया -- जो जैसा रहा, उससे वैसा ही ब्याज। है कोई ऐसा आदमी गाँव में जिसका नाम इनके धर्म खाते में न हो? जिसके जिस्म का लहू इनकी तिजोरी तक न पहुँचा हो? ऐसे आदमखोर से लड़ना है हरचरना को और वह भी अकेला !
यहीं आकर रूक जाता है वह। अकेला....! लेकिन अकेला क्यों? कल वह गाँव के लोगों से एक - एक कर मिलेगा। आखिर कोई न कोई मिल ही जाएगा, न्याय के पक्ष में आवाज उठाने वाला । एक - एक कर कई चेहरे उसकी आँखों के सामने घूमने लगे। वह हर एक पर विचार करता और आगे बढ़ जाता। अंत में एक चेहरे पर उसकी निगाह बिलकुल ही स्थिर हो गई।
वह चेहरा था -- चनेशरी बाबू का। चनेशरी बाबू, हाँ, वे उसकी मदद अवश्य करेंगे। मुखिया के परिवार का तोड़ अगर कोई परिवार है तो इन्हीं का परिवार है। वह कुछ आश्वस्त - सा हुआ।
चनेशरी बाबू गाँव के उन चंद नौजवानों में एक हैं, जिन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद अपने जीविकोपार्जन का साधन खेती को चुना। एक समय इस इलाके के प्रगतिशील एवं समाजवादी विचार के नौजवानों में इनका नाम अव्वल था। तब वह जमाना था, जब हिंदी भाषी क्षेत्रों में समाजवादियों की तूती बोलती थी। गाँव हो या शहर, उस समय हर नौजवान की जुबान पर डॉ. लोहिया का ही नाम होता था। याद है उसे, सैदपुर का वह दंगा। दो दिनों के कत्लेआम के बाद जब कस्बे में शांति हुई थी तो सांप्रदायिक सद्भाव कायम करने के खयाल से कई राष्ट्रीय नेताओं ने सैदपुर का दौरा किया था। पर, सबसे अधिक भीड़ हुई थी, डॉ. लोहिया के ही जुलूस में। उसी दिन देखा था उसने, चनेशरी बाबू का रुतबा। खादी का कड़क पायजामा - कुर्ता पहने वे हमेशा लोहिया जी के पीछे - पीछे दौड़ रहे थे। दौरे के बाद लोकसभा में डॉक्टर साहब ने सरकार की वह खिंचाई की थी कि जवाब देते - देते प्रधानमंत्री के छक्के छूट गए थे।
लेकिन, वह हवा अधिक दिनों तक नहीं चल सकी। इधर डॉक्टर लोहिया स्वर्ग सिधारे , उधर समाजवादी शिविर के तीन कानी तीन जगह बिखर गये। बहुत आघात पहुँचा था चनेशरी बाबू को ! वे निराश होकर धीरे- धीरे राजनीति से विमुख होने लगे थे कि अचानक 1974 - 75 ई. में एक और आंधी उठी और 1977 के आते - आते घटना क्रम ने कुछ ऐसा किया कि सारे तिनके इकट्ठे हो कर एक मजबूत रस्सी का रूप धारण कर लिया। एकबार फिर चनेशरी बाबू की गतिविधियां तेज हो गईं। समता पर आधारित समाज के निर्माण में वे फिर से जुट गए। पर, हाय री किस्मत ! फिर धोखा हुआ और एक बार फिर मजबूत रस्सी का तिनका - तिनका बिखर गया। चनेशरी बाबू ने तब राजनीति से पूर्णतः सन्यास ले लिया। अब न तो उन्हें साम्राज्यवादी खेमें में कोई खोट नजर आती है और न समाजवादियों के अंदर ही कोई परिवर्तनकारी शक्ति दिखाई देती है। सब के सब उन्हें स्वार्थी और मक्कार नजर आते हैं। राजनीतिक दलों को वे सत्तालोलुप, स्वार्थी और मक्कार लोगों का जमघट कहते हैं और राजनीति को एक घटिया दर्जे का खेल। दुनिया के किसी अखबार और समाचार एजेंसीज को वे निष्पक्ष नही मानते थे, एक बीबीसी, लंदन को छोड़कर। अपने घर के काम - काज के अलावा बस यही एक सूत्री - कार्यक्रम है उनका, शाम को दालान पर बैठकर बीबीसी, लंदन से विश्व का समाचार सुनना।
चनेशरी बाबू का चेहरा ही रातभर उसकी आँखों में नाचता रहा। सुबह उठकर जल्दी - जल्दी उसने भैंस की नाद में सानी - पानी डाला और चल दिया चनेशरी बाबू से मिलने।
जब वह उनके दरवाजे पर पहुँचा, तब वे भी अपने बैलों को नाद पर उतारकर सानी - पानी दे रहे थे। ऐसा नहीं कि सानी - पानी करने का शौक है चनेशरी बाबू को, और यह भी नहीं कि उनकी हैसियत नौकर रखने की नहीं है। पर वे मजबूर हैं। गाँव से शहर की ओर मजदूरों का जो पलायन हो रहा है, उसने गाँव में विकट स्थिति पैदा कर दी है। हलांकि, इस पलायन पर वे चुप नहीं रहते हैं । रोज ही भाषण झाड़ते हैं इसके खिलाफ। पर उनकी सुनता है कौन ! जहाँ अधिक मजदूरी मिलेगी, मजदूर तो वहीं जाएंगे।
हरचरना को अपनी ओर आते देखकर पहले तो वे कुछ असहज - से हुए। लेकिन शीघ्र ही अपने को संयमित करते हुए उन्होंने पूछा -- " कहो हरिचरन, कैसे आना हुआ? "
" पहले आप फुर्सत में हो लें मालिक, तब तो मैं कुछ बतियाऊं। "
" अरे फुर्सत ही है। बोलो, क्या बात है? " -- उन्होंने आत्मीयता पूर्ण लहजे में कहा। हलांकि, वे जानते थे कि वह क्यों आया है। कल वाली घटना की चर्चा शाम में उनके दालान पर भी हुई थी और उपस्थित सभी लोगों ने अपने तर्क द्वारा मुखिया जी के फैसले को उचित और न्याय संगत ठहराया था। हाँ, पूरी चर्चा के दौरान वे लगातार खामोश जरूर रहे थे।
" मालिक ! आपने सुना ही होगा कि मुखिया जी ने मेरे साथ क्या सलूक किया है ! ऊपर से वे मेरी चैती फसल भी हड़प लेना चाहते हैं। मैं गरीब और कमजोर आदमी, भला मेरी उनसे क्या बराबरी है। इसीलिए, मैं आप लोगों के पास आया हूँ। मालिक ! मुझे न्याय दिला दीजिए। वरना मैं भूखा मर जाऊँगा। " , कहते - कहते उसका गला भर आया।
बैल को नाद में दाना डालते हुए चनेशरी बाबू के हाथ कुछेक पल के लिए थम से गए। वे कुछ देर तक सोचते रहे। नाद पर बंधे दोनों बैलों ने अपना सिर उठाया और गर्दन मोड़कर एक नज़र हरचरना की ओर देखा। हरचरना टुकुर टुकुर चनेशरी बाबू की ओर देख रहा था।
खामोशी को तोड़ती हुई चनेशरी बाबू की भारी आवाज गूंज उठी, " देखो भाई, तुम तो जानते ही हो कि मैं गाँव की क्षुद्र राजनीति में नहीं पड़ना चाहता और फिर यह तो तुम्हारा और मुखिया जी का जाती मामला है , इसमें किसी दूसरे व्यक्ति का टांग अड़ाना बिलकुल उचित न होगा। मेरी सलाह मानो तो तुम एक बार फिर उनसे मिलो और उनके पांव पर गिरकर अपनी गलती के लिए क्षमा मांगो। शायद उनका ह्रदय बदल जाये और वे तुम्हें क्षमा कर दें। "
" मालिक ! हम गरीब लोग तो सदियों से पांवों पर गिरते आए हैं, पर कितनों का ह्रदय परिवर्तन हुआ है आजतक ? खैर छोड़िए, यह बताइए कि क्या आप भी दूध को दूध और पानी को पानी न कह सकेंगे? " -- हरचरना की पैनी निगाह अंदर तक उन्हें बेधती चली गई।
झेंपकर उन्होंने सिर झुका लिया और कहा, " नहीं भाई , मुझे इस मामले में तटस्थ ही रहने दो तो अच्छा होगा। "
हरचरना को लगा मानों उसकी धमनियों में बहता लहू एकाएक जम - सा गया। उसने एक बार गौर से चनेशरी बाबू की ओर देखा और मुंह फेरकर चल दिया।
घर लौटते हुए उसके पांव उठाए न उठ रहे थे। लगता था जैसे वह कोसों पैदल चलकर आया है। चलते - चलते जब उसकी सांसें फुलने लगीं तो वह स्कूल के पीछे वाले पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ताने लगा। दो शाम का भूखा और रात भर का जागरण। जैसे ही ठंडी हवा का स्पर्श हुआ कि आंखें बंद होने लगीं। पेड़ के तने से उठंग कर वह खर्राटे भरने लगा।
पत्तों से छन कर आती हुई तेज धूप का एक टुकड़ा जब उसके चेहरे पर ठहर गया तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। सूरज सिर पर आ चुका था। आंखें खुलते ही उसकी नजर सामने बैठे भीखू काका पर पड़ी। साथ में चतुरी चमार, बराती मियाँ, नथुनी महतो सुखू मुसहर भी थे। सुखू धीरे धीरे चुटकी से खैनी मल रहा था। कुछ पल वह भौंचक उनकी ओर देखता रहा। सभी खामोश थे। पछुआ हवा धीरे- धीरे बह रही थी।
उस खामोशी को तोड़ा भीखू काका की खांसी ने। खंखार कर गला साफ करते हुए उन्होंने कहा, " देखो भाई हरिचरन, कल शाम को तुम्हारे मामले को लेकर सभी टोलों में लोगों ने अपनी - अपनी जाति की पंचायत बुलाई थी और सभी पंचायतों का एक ही फैसला है कि जैसे भी हो, तुम्हें तुम्हारा हक मिलना ही चाहिए। "
" जरूर मिलना चाहिए और यदि न मिला तो हम उनके खेतों में काम करना बंद कर देंगे। " -- चतुरी के स्वर में उत्तेजना थी।
" अल्लाह कसम, हमने जैसे ही सुना यह तय कर लिया कि इस बार मुखिया की मनमानी हम कतई न चलने देंगे। " -- बराती मियाँ ने भीखू काका की बातों का पुरजोर समर्थन किया।
" और सबसे बड़ी बात तो यह है भइया कि तुम्हारे काम पर न आने का बहाना बनाकर वे तुम्हारी चैती फसल हड़प लेना चाहते हैं। उनकी नीयत में खोट है। " -- भीखू काका ने मुखिया की असली मंशा की ओर इशारा किया।
" लेकिन उनकी यह मंशा हम कभी भी पूरी नह होने देंगे, भीखू काका ! " -- नथुनी महतो ने दृढ़ता से कहा।
" और एक बात यह भी है न भइया कि बुढ़ऊ के मरने से ज्यादा यम के परचने का डर है। " -- अबतक चुपचाप बैठे सुखू से न रहा गया तो उसने अपनी राय जाहिर की।
उसकी आँखों के सामने उसदिन मुखिया के इर्दगिर्द खड़ी भीड़ में भावशून्य, निर्विकार से लगते चेहरे घूम गए, जिनकी आंखों में उठते प्रश्न चिह्नों को वह नहीं पढ़ पाया था। बालू के नीचे कल - कल, छल - छल बहती संवेदना की सरस्वती का ध्यान क्यों नहीं आया था उसे ? बगल के गाँव में पिछले वर्ष मजूरी के लिए उठे कोयले की बुझी - बुझी देह के भीतर सुलगती चिनगारी क्यों नहीं छुई थी उसे ? उसने अपनी जमात के पास जाकर गुहार क्यों नहीं लगाई ? क्यों गया वह चनेशरी बाबू के पास ? .... जैसे अनगिनत सवाल उसके जेहन में उठने लगे। उसकी आंखें डबडबा गईं। उसने हाथ जोड़ते हुए एक बार सबकी ओर देखा और बोला, " सभी भाइयों से मैं माफी मांगता हूँ, क्योंकि मैंने आपलोगों को गलत समझा। अरे, मैंने तो समझा था कि इस लड़ाई में मैं अकेला हूँ , बिलकुल अकेला...! "
" नहीं हरिचरन, गलती हमारी भी है कि अपनी पंचायतों में हमने तुम्हें नहीं बुलाया। दरअसल, हम पहले अपने - अपने टोले में एक राय कायम कर लेना चाहते थे ताकि आगे के बारे में सोचा जाए। " -- भीखू काका ने उसके कंधे को हौले से थपथपाते हुए कहा। सुखू ने जोर से खैनी की ताल ठोकी और अपनी हथेली आगे की ओर बढ़ा दी। सबने थोड़ी - थोड़ी खैनी चुटकी भर उठाई और होठों में दबा ली। एक बार सबकी नजरें एक दूसरे से मिली और सबने एक साथ जमीन पर थूका --- आ.... थू...! सबकी आंखों में उस वक्त एक ही चेहरा घूम रहा था --- क्रूर, अत्याचारी, बेईमान मुखिया का चेहरा। ***
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