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बादशाही मियाँ


** बादशाही मियाँ

पोती के साथ कल हुई वार्तालाप को मैं तो भूल चुका था । किंतु ऑनलाईन क्लास से निपटते ही वह मेरे पास आई और बोली -- " हाँ , तो दादू ! अब बताओ ...वो क्या नाम बोल थे कल.....ऊँ....हाँ...बादशाह मियाँ के बारे में ...। "
" बादशाह नहीं , बादशाही मियाँ । वे हमारे पड़ोस के गाँव के बुनकर थे ...। " , कहने के साथ ही बादशाही मियाँ का चेहरा मेरी आँखों में पल भर के लिए नाच उठा । लंबा छरहरा बदन , सिर पर पगड़ी , चेकदार लूंगी , मारकीन की घुटने तक लंबी कमीज , लंबूतरे चेहरे पर सफेद लंबी दाढ़ी और पीठ पर बंधा कपड़ों की गठरी , जिसकी बोझ से झुकी कमर और हाथ में लोहे का " गज " ।
" बुनकर...मतलब , दादू ? "
" कपड़ा बुनने वाला ...। "
" कपड़े तो मिल में बनते हैं न , दादू ! "
" हाँ , अब तो सिर्फ मिल या पावरलूम में ही बनते हैं । लेकिन , उस समय मिल के बने कपड़े हमारे गाँव तक उस मात्रा में नहीं पहुंच पाते थे , जितनी जरूरत होती थी और जो आते भी थे , उनकी कीमत अधिक होती थी । "
" ठीक है , तो क्या वे अपने घर पर ही कपड़ा बनाते थे ? "
" हाँ , बिटिया ! उनके घर में हस्तकरघा मशीन थी । वे उसी से कपड़ा बुनते थे । चूंकि , उनके कपड़े मोटे धागों से बुने जाते थे , लोग उसे " मोटिहा " कहते थे । कपड़े को बुनना , रंगना , सुखाना और फिर उसका गठ्ठर बनाकर पीठ पर लादे गाँव - गाँव फेरी लगाकर बेचना..। "
" क्या वे साड़ी भी बनाते थे ? "
" हाँ , साड़ी , धोती , चादर , गमछा और मारकीन ....सादा कपड़ा....। "
" मारकीन...? "
" मारकीन... वगैर रंगा हुआ कपड़ा होता था । अब तुम्हारी मर्जी , चाहे कमीज बनाओ या कुर्ता ..। "
" तो , क्या गाँव के सभी लोग उन्हीं से कपड़ा खरीदते थे ? "
" नहीं बिटिया ! उनके कपड़े होते तो सस्ते थे , पर , उसका रंग कच्चा होता था , जल्दी उड़ जाता था । साथ ही , मोटा और भारी होता था । इसलिए , गरीब घरों में ही उसकी खपत होती थी । फटते भी जल्दी थे । "
" क्या वे अब भी कपड़ा बुनते हैं ? "
" अरे , नहीं । वे तो कब के अल्लाह को प्यारे हो गए ! " , मैंने हँसते हुए जवाब दिया ।
" आई मीन ..उनके परिवार के लोग .... ! " 
" नहीं बिटिया ! उनकी जिंदगी में ही हस्तकरघा मशीन का खट्..खट्..खट्...खट...बंद हो चुका था । "
" ऐसा क्यों , दादू ? "
" क्योंकि , आजादी के बाद देश में कपड़े की कई और नई मिलें खुल गईं । नई ईजाद हुई मशीनों के कारण कपड़े की उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हुई और गाँव - गाँव तक कपडा पहुँचने लगा । सिंथेटिक धागों के इस्तेमाल के बाद तो रंग - बिरंगे कपड़े बनने लगे , जो टिकाऊ और सस्ते भी हैं । "
" फिर उनका परिवार...? "
" उन्होंने अपनी पेशा बदल ली और पास के बाजार में मिल के बने कपड़ों की दुकान खोल ली । "
" गुड ..... यह अच्छा किया उन्होंने । क्या उनके परिवार के लोग अब भी उसी गाँव में रहते हैं , दादू ? "
" क्या पता बिटिया ! वक्त की थपेड़ों ने न जाने किसे कहाँ पहुँचा दिया है ! " , -- एक निश्वास के साथ मैंने कहा । मॉब लिंचिंग की घटनाएं और हाल ही में हुए दंगे का दृश्य मेरे जेहन में कौंध गया ।

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मैं डरता हूँ ******** रोज पूछते हो भाई रवीश , क्या आप डरते हैं ? तो सुनलो मेरे भाई , मैं डरता हूँ , मैं डरता हूँ जीवन में ठहराव से समाज में बिखराव से धार्मिक पाखंड से जातीय भेदभाव से विश्वास के अभाव से मैं डरता हूँ, हाँ भाई , मैं डरता हूँ उनके मन की बात से अपनों के भीतरघात से गुंडों की बारात से ढोंगी बाबा की पांत से धर्म के चौखट पर बिछी राजनीतिक बिसात से मैं डरता हूँ , हाँ भाई , मैं डरता हूँ अच्छे मूल्यों के क्षरण से जनतंत्र के अपहरण से अपराधियों के हुजूम से जज के होते खून से झूठों के दरबार से विज्ञापनी अखबार से मैं डरता हूँ , हाँ भाई , मैं डरता हूं चूंकि मैं डरता हूँ इसलिए हर घड़ी अपने भीतर के डर से लड़ता हूँ और सारे डरे हुए लोगों के साथ सड़क पर उतरता हूँ । ----- कुमार सत्येन्द्र

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