Skip to main content

मैं डरता हूँ

मैं डरता हूँ
********
रोज पूछते हो भाई रवीश ,
क्या आप डरते हैं ?
तो सुनलो मेरे भाई ,
मैं डरता हूँ ,
मैं डरता हूँ
जीवन में ठहराव से
समाज में बिखराव से
धार्मिक पाखंड से
जातीय भेदभाव से
विश्वास के अभाव से
मैं डरता हूँ,
हाँ भाई , मैं डरता हूँ
उनके मन की बात से
अपनों के भीतरघात से
गुंडों की बारात से
ढोंगी बाबा की पांत से
धर्म के चौखट पर बिछी
राजनीतिक बिसात से
मैं डरता हूँ ,
हाँ भाई , मैं डरता हूँ
अच्छे मूल्यों के क्षरण से
जनतंत्र के अपहरण से
अपराधियों के हुजूम से
जज के होते खून से
झूठों के दरबार से
विज्ञापनी अखबार से
मैं डरता हूँ ,
हाँ भाई , मैं डरता हूं
चूंकि मैं डरता हूँ
इसलिए हर घड़ी
अपने भीतर के डर से
लड़ता हूँ
और
सारे डरे हुए लोगों के साथ
सड़क पर उतरता हूँ ।
----- कुमार सत्येन्द्र

Comments

Popular posts from this blog

फैसला

जब घास का गट्ठर लिए वह घर के दरवाजे पर पहुँचा तो सामने आंगन में गोबर पाथती  सोनमतिया  पर उसकी नजर पड़ी  । उसने चुपचाप आगे बढ़कर  आँगन  के एक कोने में सिर के बोझ को हल्का  किया और  धम्म से जमीन पर बैठकर  सुस्ताने लगा  । सोनमतिया एकटक  उसके  चेहरे को  देखे जा रही थी । वह खामोश  माथे पर  हाथ  रखे बैठा था ।          जब चुप्पी असह्य हो गई तो सोनमतिया ने पूछा, " कहाँ थे आज दिनभर..? न तो मलिकवा के काम में गए और न ही घर खाना खाने आए? " " गला सूखा जा रहा है, कुछ पानी - वानी भी दोगी या जवाब सवाल ही करती रहोगी। " -- माथे  पर चू आए पसीने को गमछे से पोंछते हुए उसने पत्नी को झिड़का।  तेजी से वह उठी और हाथ धोकर कोने में रखे घड़े से पानी ढालकर लोटा उसकी ओर बढ़ाते हुए फिर सवाल किया, " सुना है, आज तुम मलिकवा से लड़ आए हो  ? " " अरे, हम क्या लड़ेंगे, हम तो ठहरे जन्मजात गुलाम! हमारी क्या बिसात जो मालिकों से लड़ें - भिड़ें  ! " -- डूबती आवाज में बोला हरचरना और लोटा लेकर गटागट एक ही सांस में पूरा पानी पी गया।  अब सोनमतिया को बुधिया काकी की बातों पर अविश्वास न रहा। खान

कोविड -- 19

कोशिश -- 19 " सुनती हो जी....! कहाँ हो  ? " " क्या हुआ  ? कीचन में हूँ..। " " अच्छा...! चाय बना रही हो क्या  ? " " हाँ जी, दिन भर बैठे - बैठे और क्या करें  ! " " ठीक है, एक कप और बढ़ा देना  ..! " " क्यों..? इस लॉक डाउन में कौन आ रहा है  ? " " अरे, और कौन आएगा.... सामने वाले पांडे जी ने फोन किया है.... वे ही आ रहे हैं  । " -- हंसते हुए राघो बाबू ने पत्नी को जवाब दिया।  चाय के भगौने में चीनी डालते हुए कांति देवी का मुंह कड़वा - सा हो गया। पांडे जी के आने से वह खुश नहीं होती है। वे जब भी आते हैं, फिजूल की बहस में उलझ जाते हैं। और इस लॉक डाउन में जबकि टीवी पर दिन - रात सबको अपने - अपने घर में रहने की हिदायत दी जा रही है, वे रोज ही शाम को टपक जाते हैं। इस बात को लेकर राघो बाबू से कल भी इनकी खूब तकरार हुई थी।  " जब बाहरी आदमी का घर में आना - जाना लगा ही रहेगा तो लॉक डाउन  का क्या मतलब  ? "-- पांडे जी के जाते ही कांति देवी ने कहा था । " अरे , लॉक डाउन  का मतलब यह थोड़ी ही है कि आप अड़ोस - पड़ोस  से भी विमुख