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मुर्दे हैं हम

" मुर्दे हैं हम " की भूमिका 
काव्य विधा शायद साहित्य की सबसे पुरानी विधा है। कविता को मानव जीवन की रागात्मक अनुभूति की सहज अभिव्यक्ति माना गया है। कवि की संवेदना, कल्पना, वैयक्तिक सोच, परिवेश, परिस्थितियां, भाषा, छंद, बिम्ब, रस आदि एक साथ मिलकर सुंदर और कालजयी काव्य की रचना करते हैं। कविता में भावना एवं कल्पना की प्रधानता होती है। किंतु, कविता के लिए जितना जरूरी भावपक्ष है, उतना ही जरूरी है कल्पना पक्ष । उसकी भाषा, उसका शिल्प, उसका शब्द संयोजन, उसका सौंदर्य। वैचारिकता का समावेश उसे यथार्थ से जोड़ता है , प्रगति और विकास से जोड़ता है, सामाजिक सरोकारों से जोड़ता है और महज मनोरंजन की वस्तु बनने से रोकता है। 
 हिंदी और मगही के वरिष्ठ कवि प्रो. अलख देव प्रसाद अचल का हिंदी में यह तीसरा काव्य संग्रह है -- " मुर्दे नहीं हैं हम " । इस संग्रह में कुल 60 कविताएँ संकलित हैं। वैसे तो अचल जी की कलम से अबतक दर्जनों गीतों, गजलों एवं छंदबद्ध कविताओं की रचना हुईं है, वर्त्तमान संग्रह की कविताएँ छंद मुक्त हैं और गद्यात्मक शैली में लिखी गई हैं। 
अपने समाज के प्रति प्रतिबद्ध कवि शोषितों, पीड़ितों और दलितों की दशा और दिशा के प्रति अतिसंवेदनशील होता है। वह पीड़ित और त्रस्त मानवता के पक्ष में अपनी आवाज उठाता है। दबे - कुचले और उपेक्षित लोगों की बदहाली, उनके दुख - दर्द, उनकी व्यथा - पीड़ा, विपन्नता और सामाजिक विषमता के खिलाफ कवि खड़ा हो जाता है। 
संग्रह की अधिकतर कविताएँ सियासी षडयंत्रों, कमरतोड़ महंगाई और सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती बेरोजगारी जैसी समस्याओं तथा वर्त्तमान निजाम द्वारा जनविरोधी, हिंदुत्ववादी, मनुवादी और समाज में फैलाए जा रहे घृणा एवं नफरत के हालात पर केंद्रित हैं। मनुवादियों के झूठ - फरेब और कुटिल चालों में फंसे लोगों को कवि अपनी कविता " मत मारो ठहाके " में सावधान करते हुए कहता है कि ये हिंदुत्ववादी - मनुवादी तुम्हारा इस्तेमाल कर रहे हैं अल्पसंख्यकों के खिलाफ। मत भूलो तुम कि मनुवादी समाज में तुम्हारी जगह कहाँ है। 
मत मारो ठहाके
कि यहाँ की सरकार
महाभारत के षडयंत्र की भांति
यहाँ के अल्पसंख्यकों को
लगवा देना चाहती है ठिकाना
.............................. 
मत मारो ठहाके
कि तुम कह सकोगे खुद को
गर्व से हिंदू
क्योंकि तुझे तो
सदियों से समझा ही नहीं गया हिंदू
तुम तो हिंदू हो
सिर्फ उन्हें सत्ता तक पहुंचाने के लिए
‌जहाँ " घातक " कविता में कवि लोगों को अंधश्रद्धा, अंधविश्वास तथा पूर्वजन्म की परिकल्पना के प्रति सावधान कराता है और आस्था तथा विज्ञान के बारे में विस्तार से बतलाता है, वहीं " गुलाम " कविता में वह शोषित - दलित लोगों से सवाल पूछता है कि वे जन्म से लेकर मृत्यु तक, नई फसल उगाने से लेकर उन्हें खलिहान में लाने तक का मुहूर्त उन परजीवियों से क्यों दिखलाते हैं ? क्या उनके ये कदम नहीं साबित करते कि वे मानसिक रूप से उनके गुलाम हैं ? 
....................... 
तुम्हारे घर में
कोई जन्म लेती है संतान
पर , क्या तुम स्वयं 
नहीं रख सकते उसका नाम? 
इसके लिए खटखटाते हो 
किसी परजीवी के दरवाजे
तो समझो तुम गुलाम हो
 संग्रह के अन्य कविताओं से निहायत अलहदा भावभूमि पर रचित दो कविताएँ हैं ---" माँ " और " बाबूजी " । माँ का अपनी संतान के प्रति अगाध स्नेह , उसके लिए सर्वस्व त्याग की भावना और उसके दुख - दर्द को हर लेने की चाहत माँ को देवी की प्रतिमूर्ति बना देते हैं। कवि कहता है ---
माँ का ह्रदय
होता है
ब्रह्माण्ड से भी व्यापक और विशाल
जिसमें डूब जाती है
सारी भावनाएँ
............................ 
माँ का मन
गंगाजल से भी अधिक 
होता है पवित्र
जिसमें दिखता है
देवी का चित्र
इस संग्रह में संकलित कविताओं में कवि समाज के अंदर से लोप होती संवेदनशीलता, मानवता, भाईचारा, आदि पर गहरी दृष्टि डालता है। वह जीवन की गरिमा को समझने, जानने और परखने का सजग एवं सचेष्ट कोशिश करता है। " मुर्दे हैं हम " शीर्षक कविता में , जो संयोगवश इस संग्रह का भी नाम है , कवि कहता है कि ---
सरेआम सड़क पर साहिल
साक्षी को गोदते रहा था 
चाकू से
............................... 
और लोग
सर्कस के खेल की तरह
बने हुए थे तमाशबीन
अपनी - अपनी खिड़कियों से 
बना रहे थे वीडियो
................................ 
जो दर्शाता है कि
साक्षी को 
सबने मिलकर मारा है 
सभी के हाथ में थे
संवेदनहीनता के चाकू
सभी खड़े थे 
साहिल के साथ
इन कविताओं के माध्यम से कवि समाज में व्याप्त घोर विषमताओं, अंतर्द्वद्वों, जटिलताओं, विडंबनाओं और संवेदनहीनता की स्थिति से टकराता है। चारो ओर सियासत द्वारा बोए जा रहे नफरत के बीजों के प्रति लोगों को सचेत करता है। अपनी कविता " मुझे नहीं, तुझे भी " में वह कहता है ----
चाहते हो नफरत के बीज बोना
पर, तुम यह मत भूलना
कि एकदिन
सिर्फ मुझे ही नहीं
तुझे भी रोना पड़ेगा
राजनीति में धर्म के इस्तेमाल पर भी कवि की पैनी नजर है। असंख्य जातियों में बंटे हिंदू धर्म के अछूत माने जाने वाली जातियों पर चुनाव के दौरान कैसे डोरे डाले जाते हैं, कैसे बरगलाया जाता है, कैसे " गर्व से कहो हम हिंदू हैं " कहकर उन्हें छला जाता है, इसका नमूना " हैं नहीं, थे " शीर्षक कविता में कवि पेश करता है ----
तुम तो हिंदू हो? 
नहीं साहब, हैं नहीं, थे 
उस समय जब वोट का समय था
अब हिंदू नहीं, अछूत हैं साहब
जब फिर आएगी
वोट की बारी
तो फिर 
हिंदू बन जायेंगे साहब
.................................. 
चुनाव समाप्त होते ही 
हमलोग
पुनः हो जाते हैं
चमार, दुसाध, कोल - कलवार 
जिसका नहीं होता 
कोई पतवार
फिर हमारे साथ होने लगता है
वही सब कुछ 
जो सदियों से होता चला आ रहा है
कवि की पैनी नजर छोटी - बड़ी हर उस घटना पर रहती है, जिससे हमारा देश और समाज राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से प्रभावित होते हैं। माफिया और अपराधी अतीक अहमद की जब पुलिस के घेरे में हत्या कर दी जाती है तो कवि को ऐसा आभास होता है, मानो ये गोलियां अतीक अहमद की कनपटी पर नहीं, बल्कि हमारे लोकतंत्र की छाती पर चली हैं। वह कहता है -----
कि ये गोलियां 
अतीक की कनपटी पर नहीं
ये गोलियां तो चलीं थीं
लोकतंत्र के सीने पर 
ये गोलियां तो चलीं थीं
भारत के संविधान पर
ये गोलियां तो चलीं थीं
यहाँ की कानून और न्याय व्यवस्था पर
कोई भी कवि स्वभाव से ही प्रगतिशील और मानवतावादी होता है। समाज में व्याप्त विद्रुपताओं से वह उत्तेजित और आंदोलित होता है। वह समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहता है। ऊंच-नीच, छुआछूत तथा जातिगत भेदभाव उसके कोमल ह्रदय के तारों को बार - बार झंकृत करते हैं और वह इस स्थिति को बदलने के लिए बार- बार इनसे टकराता है। 
यद्यपि " मुर्दे हैं हम " काव्य संग्रह की लगभग सारी कविताएँ गद्यात्मक शैली में लिखी गई हैं, ये अपने समय का दस्तावेज हैं और सत्ता पक्ष के आख्यान के विपरीत एक वैकल्पिक आख्यान गढ़ती प्रतीत होती हैं। 
----- कुमार सत्येन्द्र

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मैं डरता हूँ

मैं डरता हूँ ******** रोज पूछते हो भाई रवीश , क्या आप डरते हैं ? तो सुनलो मेरे भाई , मैं डरता हूँ , मैं डरता हूँ जीवन में ठहराव से समाज में बिखराव से धार्मिक पाखंड से जातीय भेदभाव से विश्वास के अभाव से मैं डरता हूँ, हाँ भाई , मैं डरता हूँ उनके मन की बात से अपनों के भीतरघात से गुंडों की बारात से ढोंगी बाबा की पांत से धर्म के चौखट पर बिछी राजनीतिक बिसात से मैं डरता हूँ , हाँ भाई , मैं डरता हूँ अच्छे मूल्यों के क्षरण से जनतंत्र के अपहरण से अपराधियों के हुजूम से जज के होते खून से झूठों के दरबार से विज्ञापनी अखबार से मैं डरता हूँ , हाँ भाई , मैं डरता हूं चूंकि मैं डरता हूँ इसलिए हर घड़ी अपने भीतर के डर से लड़ता हूँ और सारे डरे हुए लोगों के साथ सड़क पर उतरता हूँ । ----- कुमार सत्येन्द्र

फैसला

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कोविड -- 19

कोशिश -- 19 " सुनती हो जी....! कहाँ हो  ? " " क्या हुआ  ? कीचन में हूँ..। " " अच्छा...! चाय बना रही हो क्या  ? " " हाँ जी, दिन भर बैठे - बैठे और क्या करें  ! " " ठीक है, एक कप और बढ़ा देना  ..! " " क्यों..? इस लॉक डाउन में कौन आ रहा है  ? " " अरे, और कौन आएगा.... सामने वाले पांडे जी ने फोन किया है.... वे ही आ रहे हैं  । " -- हंसते हुए राघो बाबू ने पत्नी को जवाब दिया।  चाय के भगौने में चीनी डालते हुए कांति देवी का मुंह कड़वा - सा हो गया। पांडे जी के आने से वह खुश नहीं होती है। वे जब भी आते हैं, फिजूल की बहस में उलझ जाते हैं। और इस लॉक डाउन में जबकि टीवी पर दिन - रात सबको अपने - अपने घर में रहने की हिदायत दी जा रही है, वे रोज ही शाम को टपक जाते हैं। इस बात को लेकर राघो बाबू से कल भी इनकी खूब तकरार हुई थी।  " जब बाहरी आदमी का घर में आना - जाना लगा ही रहेगा तो लॉक डाउन  का क्या मतलब  ? "-- पांडे जी के जाते ही कांति देवी ने कहा था । " अरे , लॉक डाउन  का मतलब यह थोड़ी ही है कि आप अड़ोस - पड़ोस  से भी विमुख