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"मौंसी का गाँव"-- एक पाठक की टिप्पणी


" मौंसी का गाँव " -- एक पाठक की टिप्पणी ।

अस्सी - नब्बे के दशक में हिंदी साहित्य में दो विमर्श प्रमुखता से छाए रहे थे , पहला नारी विमर्श और दूसरा दलित विमर्श । " हंस " के संपादक राजेन्द्र यादव ने इन दोनों ही विमर्शों को काफी तवज्जो दिया था और अपनी पत्रिका में इन पर लगातार बहसें चलाई थीं । संभवतः हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में दलित साहित्य का धमाकेदार हस्तक्षेप भी उसी समय हुआ था । 

वरिष्ठ कथाकार प्रह्लादचंद्र दास का प्रथम उपन्यास " मौंसी का गाँव " , जिसका रचनाकाल लगभग अस्सी के दशक का उत्तरार्द्ध और नब्बे के दशक का पूर्वार्द्ध है , दलित विमर्श को एक नये कोण से देखने की दृष्टि देता है । जिस तरह इनकी अधिकांश कहानियां शोषितों , वंचितों , दलितों की आर्थिक , राजनीतिक एवं सामाजिक दशा की अभिव्यक्ति हैं , इनके उपन्यास के कथावस्तु का केंद्रीय तत्व भी समाज में सदियों से व्याप्त सामाजिक कोढ़ छुआछूत है । 

उपन्यास का पूरा तानाबाना कोयलांचल (धनबाद) के एक गाँव मेहुल बनी में बुना जाता है , जो पास ही स्थित लौहनगरी बोकारो स्टील सिटी से जुड़कर और भी विस्तार पाता है । मेहुल बनी गाँव की जातिगत संरचना के अनुसार एक घर ब्राह्मण को छोड़ शेष घर शुद्रों के हैं । शुद्रों में 85 % लोग मंडल जाति के हैं और शेष 15 % में अन्य सारी जातियाँ हैं । ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने जातिवादी सोपान पर इन सबके लिए भी एक एक पायदान तय कर दिये हैं और मजे की बात यह है कि इनके बीच भी छुआछूत जैसे सदियों पुराने सामाजिक कोढ़ ने अपनी जड़ जमा रखा है। स्वयं शुद्र होते हुए भी मंडल जाति के लोग दलित जातियों से छुआछूत का व्यवहार करते हैं । इधर दलितों में भी धोबियों के लिए मोची अछूत हैं , तो कुछ धर्मपरायण मोचियों के लिए धोबी अछूत हैं । इनके बीच बेटी - रोटी का संबंध कौन कहे , पानी तक नहीं चलता है । 

ब्राह्मणवादी व्यवस्था द्वारा निर्मित जाल में सदियों से फँसे इन दलित,शोषित, वंचित जनों की मुक्ति ही लेखक का यथेष्ट है । इसीलिए , उसने एक ओर श्रीकांत प्रसाद , जीवेश मिश्रा ,अमित , अरुंधती , बाबूलाल और शशि जैसे किरदारों की रचना की है , जो समाज में व्याप्त छुआछूत सहित सामाजिक शोषण के तमाम हथकंडों को उखाड़ फेंकने के लिए कृतसंकल्प हैं , तो दूसरी ओर संतराम , आशा देवी , विनय , मोहन मंडल , सोहन मंडल आदि किरदारों की रचना की है , जो दलित और शुद्र होते हुए भी अपनी अज्ञानता के कारण उसी जाति व्यवस्था को सिंचित , पल्लवित एवं पुष्पित करते हैं , जिसके कारण वे समाज में सर्वथा उपेक्षित एवं तिरस्कृत हैं । भाग्य ,भगवान , पुनर्जन्म , स्वर्ग , नरक , पाप एवं पुण्य जैसी अवधारणा ने समूचे शुद्र व दलित समाज को अपनी बेड़ियों में जकड़ रखा है । जिन धार्मिक शास्त्रों एवं ग्रंथों ने उनकी दशा पशुओं से भी बदतर बनायी है , वे उन्हीं के प्रति घोर श्रद्धा और अंध आस्था रखते हैं । 

हमारे यहाँ आज भी गाँव के आर्थिक संसाधनों पर सवर्णों , वैश्यों अथवा शुद्रों / पिछड़ों का ही कब्जा है । दलितों का बहुलांश , लगभग 90 - 95 प्रतिशत , खेतिहर मजदूर हैं , जो अपने जीवन यापन के लिए किसानों पर निर्भर हैं । इस तरह दलित जाति के लोग , सामाजिक तथा आर्थिक , दोहरे शोषण के शिकार होते हैं । उपन्यास के मुख्य किरदार को इस बात का इल्म है । वह अपने लोगों की इन सामाजिक एवं आर्थिक शोषण से मुक्ति चाहता है । किंतु , सदियों से शोषण करने वाले लोगों को भला यह कैसे स्वीकार होता ! जब अमित और बाबूलाल के नेतृत्व में दलित लोग " मरी " नहीं ढोने , मजदूरी में अपेक्षित सुधार करने और अपने बच्चों को गोरखिए के काम से नहीं लगाने जैसे निर्णय लेते हैं , तो मंडलों के टोले में खलबली मच जाती है । जातीय उच्चता को बनाए रखने तथा आर्थिक शोषण को कायम रखने के लिए जरूरी था कि दलितों के उठते हुए सिर को तत्काल कुचल दिया जाए । उनके निर्णयों से बौखलाए हुए मंडलों द्वारा दलितों के साथ मारपीट होती है । संयोगवश पुलिस के आला अधिकारी दलित जाति से होते हैं । अतः दलितों की मांगें मानने पर मंडलों को मजबूर होना पड़ता है और बेलछी या परसबिगहा जैसे कांड होने से मेहुलबनी बच जाता है ।

मंदिर प्रवेश के लिए हुए विवाद में भी मंडलों ने दलितों के साथ भीषण मारपीट की । मामला थाना - कचहरी तक पहुँच गया । चूंकि , दलितों की जागरूकता के कारण मंडलों के खिलाफ एससी - एसटी ऐक्ट के तहत मुकदमें हुए थे , वे समझौता के लिए संतराम के पास आते हैं और सरल स्वभाव , धर्मपरायण संतराम के हस्तक्षेप से समझौता हो जाता है । दलितों का मंदिर प्रवेश पर लगी रोक के हटने के एवज में मंडलों पर से मुकदमा उठा लिया जाता है । लगातार मिली दो जीत से दलित जातियों की उत्साह में अप्रत्याशित वृद्धि होती है । अमित , बाबूलाल एवं शशि शिक्षा की मुहिम को और भी तेज कर देते हैं । उनका मानना है कि शिक्षा के हथियार से ही अंधश्रद्धा और अंधास्था की बेड़ियों को काटा जा सकता है ।
इस उपन्यास के कथारस को आगे बढ़ाने और जातिगत भेदभाव व छुआछूत के खिलाफ संघर्ष को धार देने में दो स्त्री चरित्रों की बहुत ही अहम भूमिका है । ये दोनों हैं ---- शशि और अरुंधति । दलित (धोबी) जाति में जन्मी शशि मेहुलबनी की बेटी और बाल विधवा है , जो अपने भाई बाबूलाल तथा भाभी उमा के साथ रहती है । अमित के विचारों से प्रभावित होकर शशि एवं उसका भाई बाबूलाल उसके द्वारा चलाए जा रहे शिक्षा अभियान से जुड़ जाते हैं । गाँव में आंबेडकर क्लब खोलने और आंबेडकर के विचारों को प्रचारित - प्रसारित करने में शशि अहम भूमिका निभाती है । 
जन्म से ही जातिगत वैषम्य , भेदभाव , घृणा , और छुआछूत से पीड़ित हर दलित इस संत्रास से मुक्ति का मार्ग तलाशता है । त्रासद स्थिति यह है कि यह तलाश इक्कीसवीं सदी में भी जारी है । बुद्ध के बाद ज्योतिबा फूले , पेरियार और आंबेडकर को छोड़कर न तो किसी शासक ने और न ही हिंदू धर्म के किसी चिंतक ने जाति उन्मूलन की दिशा में कोई सार्थक प्रयास किया है । इसीलिए लेखक सिर्फ आंबेडकर द्वारा बताए रास्ते पर ही चलने की सलाह देता है । वह चाहता है कि नई पीढ़ी की पूरी चेष्टा " जाति की समाप्ति " की ओर होनी चाहिए । पर , वह यह भी जानता है कि लोगों के मन में सदियों से जमी जात-पाँत , ऊँच-नीच और छुआछूत रूपी कालिख सिर्फ धोने से नहीं मिटेगी , उसे तो रगड़ रगड़कर मिटाना होगा । 

बोकारो प्रवास के दौरान ही अमित की मुलाकात अरुंधति से होती है , जो श्रीकांत प्रसाद के सहकर्मी जीवेश मिश्रा की इकलौती संतान है और अमित की सहपाठिनी है । जीवेश मिश्रा प्रगतिशील विचार के व्यक्ति हैं । दोनों पड़ोसी एवं सहकर्मी होने के साथ - साथ एक ही मजदूर यूनियन के सदस्य भी हैं । जीवेश मिश्रा की पत्नी सौदामिनी जब पहलीबार गाँव से आती है , तो वह पड़ोसी श्रीकांत प्रसाद के परिवार से , उनकी जाति के कारण , मेल-जोल का जमकर विरोध करती है । किंतु , बाद में घटना चक्र कुछ ऐसा चलता है कि वह उस परिवार से पूरीतरह हिलमिल जाती है । प्रगतिशील पिता की संतान होने के कारण अरुंधति के विचार भी तार्किक एवं वैज्ञानिक हैं । समव्यस्क तथा समरूप विचारों के कारण अमित और अरुंधति में मित्रता हो जाती है । वे जब भी मिलते , सामाजिक एवं सांस्कृतिक विषयों पर खूब चर्चा करते । अरुंधति को श्रीकांत प्रसाद के घर में आंबेडकर की कई किताबें मिलती हैं , जिनका वह गहन अध्ययन करती है । परिणामस्वरूप , वह वर्णाश्रम का घोर विरोधी हो जाती है और वह भी अमित की जातिउन्मूलन मुहिम से जुड़ जाती है । 


ग्रामीण संस्कृति से कुछ उदार और प्रगतिशील संस्कृति है बोकारो शहर की । औद्योगिक शहर होने के कारण गाँवों की तरह यहाँ जाति आधारित टोले की बजाए वर्ग आधारित कॉलोनियाँ हैं --- मजदूरों - कर्मचारियों की कॉलोनियाँ तथा अधिकारियों की कॉलोनियाँ । जिनमें सभी धर्मों एवं जातियों के लोग एक साथ रहते हैं । एक ही कारखाने में कार्यरत समान वेतनभोगी लोगों के बीच प्रत्यक्षतः भले ही जातिगत भेदभाव न हो , किंतु भीतरखाने अधिकांश लोग अपनी - अपनी जाति के कुनबे से जुड़े हुए हैं । शिक्षा एवं आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारण शहर के नागरिकों की चेतना का विकास हुआ है और छुआछूत की भावना में कमी आई है । वर्ग आधारित यूनियन के सदस्यों में जातीय पहचान और जातीय दंभ की भावना काफी हद तक कमजोर हुई है । तभी तो वर्गाधारित यूनियन के सदस्य जीवेश मिश्रा अपने परिवार का कोपभाजन बनकर भी अपनी बेटी अरुंधति की शादी एक दलित नौजवान अमित से करते हैं । अपने पिता को लिखे पत्र में वे साफ-साफ लिखते हैं कि वे जाति के झूठे दंभ के लिए अपनी प्यारी सी बिटिया का जीवन बर्बाद नहीं होने देंगे । उन्होंने यह भी लिखा कि यहाँ शहर में भी लोग उन्हें बिरादरी से बाहर करने की घोषणा कर चुके हैं , लेकिन उन्हें नहीं पता कि जाति - बिरादरी से बाहर वे एक सर्वथा भिन्न बिरादरी " मजदूर बिरादरी " में रहते हैं , जिसके बीच उनके रात-दिन कटते हैं । उन्हें और किसी दूसरी बिरादरी की न जरूरत है और न ही चिंता ।
यह " मजदूर बिरादरी " क्या है और इसकी निर्मिति का आधार क्या है ? लेखक इसके विस्तार में नहीं जाता । किंतु , जीवेश मिश्रा के इस उदात्त चरित्र के निर्माण में निश्चित ही उनकी विचारधारा का महत्वपूर्ण हाथ रहा है । तो , वह विचारधारा आखिर क्या है ? मेरी समझ से वह है --- द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन से उत्पन्न वर्गाधारित दृष्टिकोण । वर्ग संघर्ष और वर्ण संघर्ष की द्विविधा में न फँसकर लेखक सीधे - सीधे वर्ण संघर्ष के रास्ते पर ही चलकर सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक न्याय प्राप्त करने का सिद्धांत प्रतिपादित करता है । इसी का परिणाम है कि श्रीकांत प्रसाद वर्गाधारित यूनियन का परित्याग कर एससी/एसटी एशोसिएशन से एक बार फिर जुड़ जाते हैं।
आमतौर पर किसी भी क्षेत्र में सक्रिय यूनियन या एशोसिएशन वर्ग के आधार पर ही गठित होते हैं , क्योंकि उनके ज्यादातर संघर्ष धर्म , जाति एवं क्षेत्र से निरपेक्ष सबके हितों से जुड़े होते हैं । किंतु , इस संदर्भ में लेखक की समझ यह दिखती है कि वर्ण आधारित संघ या एशोसिएशन ही पिछड़ों-दलितों-आदिवासियों आदि की लड़ाई ईमानदारी से लड़ सकते हैं । जबकि सच्चाई यह है कि किसी भी क्षेत्र में वर्ग की बजाए धर्म , जाति और क्षेत्र आधारित यूनियन या एशोसिएशन बनने के कारण मजदूरों की वर्गीय एकता टूटती है और उनके हितों का नुकसान होता है । कभी-कभी तो इस तरह की यूनियनों के निर्माण में प्रबंधन द्वारा विशेष सहयोग किया जाता है । 
हमारे देश की यह भी एक विडंबना रही है कि यहाँ एक पूरी की पूरी जाति ही श्रमिक वर्ग का निर्माण करती है । ऐसी स्थिति में वर्ग ही वर्ण और वर्ण ही वर्ग हो जाता है । ये लोग सामाजिक और आर्थिक , दोनों ही स्तर पर एक साथ शोषण के शिकार होते हैं । डी. डी. कोसाम्बी के अनुसार , "जाति का सम्बन्ध आर्थिक स्थिति से जुड़ा हुआ था । ब्राह्मण जमीन की उसी माप के लिए कम लगान देता था । इसे उनका विशेषाधिकार समझा जाता था । " इरफान हबीब के अनुसार भी "मध्ययुगीन भारत में जाति-व्यवस्था वर्गीय शोषण का प्रमुख स्तंभ रहा है । इसका मुख्य लाभार्थी शासक वर्ग ही हो सकता था । जाति महत्वपूर्ण थी , क्योंकि अधिकतर जमींदार वर्चस्वशाली जाति के ही होते थे । " 
स्पष्ट है कि भारत में आदिकाल से ही शोषण का आधार जाति रहा है । तभी तो बाबा साहेब एक जगह कहते हैं कि "..... कोई हमें कहीं भी ले जाए , लेकिन हम ज्योतिबा के रास्ते पर ही चलेंगे । उन्होंने गैर-ब्राह्मणों को जो शिक्षा दी है , वह अमूल्य है । साथ में कार्ल मार्क्स को ले सकते हैं , और किसी को ले सकते हैं , लेकिन ज्योतिबा का रास्ता हमलोग नहीं छोड़ेंगे । " और , ज्योतिबा का रास्ता क्या है ? शिक्षा के प्रचार - प्रसार द्वारा लोगों को तर्कशील एवं विवेकशील बनाना , ताकि वे धार्मिक ग्रंथों व शास्त्रों के निहितार्थों को समझ सकें और इस जाति व्यवस्था को जड़-मूल से उखाड़ सकें ।


लेखक फूले और आंबेडकर की इस उक्ति से पूरी तरह इत्तेफाक रखता है कि धार्मिक ग्रंथों एवं शास्त्रों के प्रति जबतक आस्था व श्रद्धा बनी रहेगी , तबतक समाज से जातिप्रथा का उन्मूलन असंभव है । इसीलिए लेखक अपने पात्रों अमित , बाबूलाल , शशि और अरुंधति के माध्यम से रामायण , महाभारत , मनुस्मृति , शतपथ ब्राह्मण सहित कई ग्रंथों के प्रसंगों को उठाता है और उनका तार्किक विश्लेषण कर यह बतलाता है कि ये सभी धर्म - ग्रंथ किस तरह आस्था की दुहाई देकर सारे प्रश्नों , तर्कों और दलीलों को खारिज कर देते हैं तथा वर्णाश्रम को महिमामंडित कर और भी मजबूत करते हैं । विनय से धर्मग्रंथों की चर्चा करते हुए अमित हिंदू धर्मग्रंथों में धार्मिक संदेहवाद की परंपरा का जिक्र करता है और ऋगवेद का उदाहरण देता है , जिसके अंत में कहा गया है कि " असल में कौन जानता है ? कौन इसके लिए दावा करेगा ? यह कहाँ से उत्पन्न हुआ था ? इसका कहाँ से सृजन हुआ है ? ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बाद ईश्वर अस्तित्व में आया , तब कौन जानता है, वह कहाँ से उत्पन्न हुआ ? यह सृजन कहाँ से हुआ -- शायद यह अपने आप बना या शायद नहीं । एक वह जो सबसे ऊँचे स्वर्ग में रहता है और वहाँ से नीचे देखता है , सिर्फ वही जानता है या शायद वह भी नहीं जानता । " वह आगे कहता है कि ऐसा नहीं कि इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरोध में लोग नहीं खड़े हुए हैं । जब जावालि , चार्वाक , बुद्ध , बसवेश्वर जैसे लोगों ने इसे चुनौती देने का प्रयास किया , तो प्रथम दोनों के विचारों को ही ब्राह्मणों ने दफना दिया और बाद वाले दोनों को ईश्वर घोषित कर अपना अराध्य बना लिया । इस संदर्भ में वाल्टेयर का जिक्र करते हुए वह कहता है कि हमारे वाल्टेयर को ब्राह्मण वर्ग से ही आना है । किसी शंकराचार्य को किसी पीठ से खड़ा होकर हाँक लगानी पड़ेगी कि " हे ब्राह्मणों , यह जाति - पांति सब झूठ है । यह हमारी स्वार्थपूर्ति के लिए बनाई गई एक प्रणाली है । इसका त्याग करो । " हलांकि , उसे यह संदेह भी है कि हिंदू धर्म में कभी कोई वाल्टेयर पैदा होगा । कारण है , आर्थिक आत्मनिर्भरता मिलने के बाद लोगों का निष्क्रिय होना । अमित कहता है कि " आर्थिक आत्मनिर्भरता एक साधन - भर हो सकती है , किसी साध्य को पाने के लिए , पर हमारे यहाँ अधिकतर लोग साधन को ही साध्य माने हुए हैं , इसलिए यहाँ कोई परिवर्तनकामी विचार पैदा नहीं होते । किसी भी तरह की क्रांतिकारिता की बात नहीं होती । " जातिगत भेदभाव से मुक्ति की छटपटाहट हर एक पात्र की बातों में परिलक्षित होती है । आखिर क्यों न हो ? कहावत भी है ," जाके पाँव न फटी बिवाई , वो क्या जाने पीर पराई । "

विनय इस उपन्यास का एक और अहम किरदार है । बोकारो शहर में जन्मे विनय की परवरिश गाँव से अत्यंत ही भिन्न माहौल में होता है । पिता श्रीकांत प्रसाद बोकारो कारखाने का एक मुलाजिम हैं और अपने मजदूर यूनियन के साथ ही सामाजिक कार्यों में भी काफी सक्रिय रहते हैं । वैचारिक स्तर पर वे नास्तिक हैं और पूजा - पाठ को ढकोसला तथा पाखंड मानते हैं । इसके विपरीत उनकी पत्नी , आशा देवी , सारा समय पूजा-पाठ में ही व्यतीत करती हैं । उनकी इकलौती संतान , विनय पर अपने पिता की बजाए माता का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है और वह अपनी पढ़ाई से ज्यादा माँ के पूजा-पाठ में ही हाथ बँटाता है । धार्मिक कर्मकांड की इसी आस्था के कारण वह हिंदुत्ववादी संगठनों की गिरफ्त में चला जाता है और वे उसके मनोमस्तिष्क में मुसलमानों के खिलाफ जहर भर देते हैं । बाबरी मस्जिद और राम मंदिर विवाद उस समय का सबसे ज्वलंत मुद्दा था । एक मोहरा की तरह ये संगठन विनय तथा पिछड़ी - दलित जातियों के अन्य लड़कों का इस्तेमाल करते हैं । दलित होते हुए भी हिंदू होने के झूठे दंभ के कारण विनय अमित की बातों को अनसुनी कर देता है और अपने संगठन द्वारा सौंपी गई प्रत्येक जिम्मेदारी को पूरी निष्ठा से निभाने का प्रयास करता है ।
परंतु , मंदिर प्रवेश के दिन वाली घटना के बाद , जिसका कि वह प्रत्यक्षदर्शी गवाह होता है , विनय के मन में एक अंतर्द्वंद्व पैदा होता है । वह हिंदू धर्म में सदियों से स्थापित जातिगत व्यवस्था के बारे में कुछ प्रश्न अपने आंदोलन के नेताओं से पूछना चाहता है । पर , मंदिर आंदोलन की तैयारी में सबकी व्यस्तता के कारण वह पूछ नहीं पाता । इसी बीच स्वयंसेवकों की भर्ती के संदर्भ में वह पुनः मौंसी के गाँव जाता है और वहाँ पड़ोस के गाँव में आयोजित रामायण गान के दौरान एक अप्रत्याशित घटना उसके साथ घटती है । वह मूलगाइन को बख्शीश देने के लिए मंच पर चला जाता है , जबकि ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था के अनुसार अस्पृश्य जाति के लोगों को मंच पर जाने की मनाही थी । उनके लिए तो बैठने तक की व्यवस्था सबसे अलग की गई थी । इस तथाकथित सामाजिक अपराध के लिए उसे तथा उसके मौंसा संतराम को बुरी तरह अपमानित होना पड़ता है । इस घटना के बाद उसे अमित द्वारा कही गई बातें अनायास याद आने लगती हैं । उसके अंदर आत्ममंथन शुरू हो जाता है । वह मन ही मन कहता है --- " यही हिंदू धर्म है हमारा ? इसी धर्म के लिए मैं पागल बना हुआ हूँ ? जहाँ एक आदमी के छूने से दूसरा आदमी अपवित्र हो जाता है ? यह दुनिया के और किस धर्म में है ? उफ्फ !......वसुधैव कुटुम्बकम ! क्या यही है वह कुटुम्ब भाव ? क्या यह कुटुम्ब अपनी जाति के लिए बना शब्द है ? " 
अपमान की वह आग उसके भीतर धधकते हुए शोले के रूप में परिणत हो जाती है और वहाँ से लौटने के बाद उसी शाम जुटान में , जहाँ जिला प्रमुख , महंत जी , भैया जी आदि उपस्थित हैं , वह कई प्रश्न उनकी ओर उछाल देता है , जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था में पूछना पूर्णतः निषेध है । इसके बाद उसके साथ वही सुलूक होता है , जो एक बागी के साथ होता है । उसे शाम के धुँधलके में बुरी तरह पीटा जाता है । फलस्वरूप , वह कई दिनों तक बिस्तर पर पड़ा रहता है । इस घटना के बाद विनय के साथ - साथ आशा देवी की भी आँखें खुल जाती हैं । दोनों अपने किये पर घोर पश्चाताप करते हैं और तत्क्षण श्रीकांत प्रसाद तथा अमित की मुहिम से जुड़ जाते हैं । 

विनय को लिखे पत्र में अमित जातिवाद से मुक्ति की राह सुझाते हुए कहता है -- " हमें हिंदूवादी कार्यकलाप छोड़ने होंगे । हम अपने सारे लोगों को भी छोड़ने के लिए प्रेरित करेंगे । यह ब्राह्मणवाद को कमजोर करने का पहला कदम होगा । इसके बाद ध्वस्त करने की अंतिम लड़ाई होगी , जो निश्चित ही हम अकेले नहीं लड़ पायेंगे और उसके लिए अन्य स्रोतों का भी सहारा लेना पड़ेगा , जिनमें हमारी तरह ही पीड़ित एक कौम मुसलमान भी होगी ....। " 
इस पत्र में अभिव्यक्त विचार से ऐसा आभास होता है कि लेखक की अंतःचेतना पर कहीं न कहीं "बामसेफ" जैसे संगठन का भी प्रभाव है । इसीलिए शायद उपन्यास में एक मुस्लिम पात्र दिल मोहम्मद की भी रचना की गई है , जो अमित के बचपन का सहपाठी होता है । मंदिर प्रवेश विवाद के समय वह अपने साथियों के साथ आकर मंडलों से अमित को बचाता है और सभी घायलों को अस्पताल पहुँचाता है । आंबेडकर क्लब में पुस्तकालय के लिए कमरा बनवाने में भी वह अहम भूमिका निभाता है । 
दिल्ली प्रवास के दौरान अमित अपने यूनिवर्सिटी के एक छात्र संगठन से जुड़ जाता है , जो सिर्फ छात्रों की ही नहीं , अपितु देश की समस्याओं पर भी हस्तक्षेप करता है । पढ़ाई और छात्र आंदोलन के दौरान उसके विचार और भी प्रौढ़ एवं परिपक्व होते हैं । उसकी सोच का दायरा भी बढ़ जाता है और तब वह अरुंधति को लिखता है कि " .... यह ठीक है कि वर्णाश्रम जनित जातिगत भेदभाव से गुजरना हमारे लिए सबसे बड़ी समस्या है , पर ये घृणा और भेदभाव उन अत्याचारों से जाकर जुड़ जाते हैं , जो साधन-संपन्न व्यक्तियों द्वारा गरीब और कमजोर व्यक्तियों पर बरपा किये जाते हैं....। " इस प्रसंग से ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक का दृष्टिकोण एकांगी नहीं है । उसकी प्राथमिकता में भले ही वर्ण संघर्ष हो , किंतु वह वर्ग संघर्ष की जरूरत को भी रेखांकित करता है । उसकी सूक्ष्म दृष्टि समाज को आलोड़ित करने वाले हर एक मुद्दे पर पड़ती है । मंडल आयोग लागू होने के बाद की परिस्थिति कुछ क्षण के लिए लेखक को द्विविधा में डाल देती है । किंतु , तभी उसे बाबा साहेब द्वारा इस संबंध में दिये गए दिशा निर्देश की याद आती है और वह गाँव में पिछड़ी जातियों द्वारा किये गए सारी जातिगत प्रताड़नाओं को भूलकर आरक्षण के समर्थन में खड़ा हो जाता है । 

अमित और अरुंधति एक राह के पथिक तो थे ही , अब उनके जीवन का लक्ष्य भी एक हो जाता है । इधर शशि के विचार व व्यवहार से विनय भी उसकी ओर आकर्षित हो जाता है । परिणामस्वरूप , एक ही साथ दो अंतर्जातीय शादियाँ होती हैं । एक शादी दो आंबेडकरवादी परिवारों के बीच और दूसरी आंबेडकरवादी एवं मार्क्सवादी परिवार के बीच । जीवेश मिश्रा अपनी बेटी की खुशी के लिए अपने परिवार और ब्राह्मण समाज दोनों का परित्याग कर देते हैं । 
मुझे लगता है कि जीवेश मिश्रा जैसे उदारवादी , प्रगतिशील और क्रांतिकारी पात्र के साथ लेखक ने न्याय नहीं किया है । जिस वैचारिक दृष्टि के कारण उनमें व्यक्ति और समाज को , जाति और धर्म को देखने , परखने और समझने का वैशिष्ट्य प्राप्त हुआ है , उसका तो उपन्यास में कहीं कोई चर्चा तक नहीं है । 

श्री दास की कथा बुनने की अपनी विशिष्ट शैली है , जो पाठक को बाँधकर रखती है । भाषा में गरिमा है , शालीनता है और आँचलिक मुहावरों का यथोचित समावेश है । सरल , सहज और संप्रेषणीय तो यह है ही । कहीं और कभी भी पाठक को आतंकित नहीं करती । इनकी कहानियों की ही तरह इनके उपन्यास की कथावस्तु भी धीमी गति से धीरे-धीरे अपनी मंजिल की ओर बढ़ती है । न कोई फंतासी , न कोई अतिरंजना और न ही अनावश्यक विस्तार ।आर्थिक , सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश की निर्मिति भी बहुत ही स्वाभाविक एवं यथार्थपरक ढंग से हुई है । 

कोई भी महत्वपूर्ण सृजन लेखक के जीवनानुभव , यथार्थबोध , संवेदना और घटनाओं का सम्यक विश्लेषण का प्रतिफलन होता है । वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ ही कलात्मकता एक उच्चस्तरीय साहित्य की आवश्यक शर्त है । " मौंसी का गाँव " इस कसौटी पर खरा उतरता है । झारखंड की प्राकृतिक छटा का वर्णन हो या ग्रामीण संस्कृति को अभिव्यक्ति देनेवाले गीत - संगीत या गायन - हरिकीर्तन का लेखक ने बहुत ही यथार्थपरक ढंग से वर्णन किया है । पाठक महसूस करता है कि वह स्वयं उनमें प्रतिभागी है ।
"मौंसी का गाँव" उपन्यास शायद हिंदी में जातिगत भेदभाव , छुआछूत और जाति उन्मूलन पर केंद्रित पहला उपन्यास है , जिसमें इन सामाजिक कुप्रथाओं की जड़ों की पड़ताल कर उन पर करारा प्रहार किया गया है । तार्किक ढंग से धार्मिक ग्रंथों एवं धर्म शास्त्रों की जैसी तीखी आलोचना इस पुस्तक में की गई है , वह हमें आंबेडकर की " जाति उन्मूलन ", ज्योतिबा फूले की " गुलामगिरी " और राहुल सांकृत्यायन की " तुम्हारी क्षय " की याद दिलाती है । नहीं मालूम कि दलित साहित्यालोचक इसे दलित साहित्य की श्रेणी में रखेंगे या नहीं । पर , इससे गुजरने के बाद मुझे लगता है कि यह उपन्यास न केवल दलित विमर्श को एक नया आयाम देता है , अपितु दलित आंदोलन को एक नई दृष्टि और नया दिशा भी प्रदान करता है । 

----- कुमार सत्येन्द्र





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हत्याओं के दौर में हत्याओं के इस दौर में खेत - खलिहान घर - दालान सब हैं वीरान नहीं लगता चौपाल गांव के चौराहों पर चिपका है भय घर के दीवारों से खो गई हैं कहीं बच्चों की किलकारियां माताओं की लोरियां भूल गए हैं लोग संझा - प्राती नहीं गातीं औरतें जंतसार , सोहर और झूमर ढोल - मंजीरे नहीं बजते मंदिर के चौबारे पर न भजन , न कीर्तन भूल गए हैं लोग होली, बिरहा, लोरकाइन गोगा साव अब भी हैं पर नहीं सुनाते सोरठा - बृजाभार हत्याओं के इस दौर में नहीं हंसते लोग ठठाकर न रोते हैं बुक्का फाड़कर सिसकियों में डूबते - उतराते बंद हो जाते हैं घरों में सूरज के ढलते ही रह जाते हैं गलियों में आवारा कुत्ते या हत्यारे विचरण करते अंधेरे में निर्द्वंद्व , निर्बाध गांव के वक्ष पर पसरा सन्नाटा होता है भंग कभी गोलियों की आवाज से कभी कुत्तों के रुदन से सिहर उठते हैं लोग कुत्तों के रोने को मानते हैं अशुभ क्यों , क्यों हो रहा है ऐसा ? बंद दरवाजों पर दस्तक देते प्रश्न प्रश्नों से कतराते लोग जानते हैं बोलने की सजा एक और खौफनाक मौत किंतु , एक न एक दिन उठेंगे लोग इस दहशतगर्द

फैसला

जब घास का गट्ठर लिए वह घर के दरवाजे पर पहुँचा तो सामने आंगन में गोबर पाथती  सोनमतिया  पर उसकी नजर पड़ी  । उसने चुपचाप आगे बढ़कर  आँगन  के एक कोने में सिर के बोझ को हल्का  किया और  धम्म से जमीन पर बैठकर  सुस्ताने लगा  । सोनमतिया एकटक  उसके  चेहरे को  देखे जा रही थी । वह खामोश  माथे पर  हाथ  रखे बैठा था ।          जब चुप्पी असह्य हो गई तो सोनमतिया ने पूछा, " कहाँ थे आज दिनभर..? न तो मलिकवा के काम में गए और न ही घर खाना खाने आए? " " गला सूखा जा रहा है, कुछ पानी - वानी भी दोगी या जवाब सवाल ही करती रहोगी। " -- माथे  पर चू आए पसीने को गमछे से पोंछते हुए उसने पत्नी को झिड़का।  तेजी से वह उठी और हाथ धोकर कोने में रखे घड़े से पानी ढालकर लोटा उसकी ओर बढ़ाते हुए फिर सवाल किया, " सुना है, आज तुम मलिकवा से लड़ आए हो  ? " " अरे, हम क्या लड़ेंगे, हम तो ठहरे जन्मजात गुलाम! हमारी क्या बिसात जो मालिकों से लड़ें - भिड़ें  ! " -- डूबती आवाज में बोला हरचरना और लोटा लेकर गटागट एक ही सांस में पूरा पानी पी गया।  अब सोनमतिया को बुधिया काकी की बातों पर अविश्वास न रहा। खान