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मुलाकात

लघुकथा

मुलाकात

कल वर्षों बाद रेलयात्रा के दौरान उनसे मुलाकात हुई । कभी वे हमारे सहकर्मी थे । विभाग में उनके पीठ पीछे सबलोग उन्हें " राजा साहब " कहकर संबोधित करते थे । थे भी राजसी ठाट-बाट वाले । आते ही अपने टेबल के दराज से झक्क सफेद मुलायम फर वाली तौलिया निकाल कर कुर्सी के ऊपर डालते , कलमदान टेबल पर सजाते और हाथ पोछने वाली छोटी तौलिया कंधे पर रखते हुए साबुनदानी लेकर वाशरूम में जाकर हाथ-मुँह धोते और तब अपना आसन ग्रहण करते । ऑफिस में आकर 4 से 8 घंटे तक बैठने की ही तनख्वाह उन्हें मिलती थी ।
वे बहुत ही मितभाषी थे । एकदिन मैंने उन्हें छेड़ते हुए पूछा -- " बाबू साहब ! आप अभी जिस इलाके से जुड़े हैं , उस इलाके के रहन-सहन और बात - व्यवहार से आपका मेल नहीं बैठता है । ऐसा क्यों ? "
उन्होंने मेरी ओर देखकर मुस्कुराया और गर्व से छाती चौड़ी करते हुए कहा -- " दरअसल , हमारे पूर्वज कई सौ वर्ष पहले राजस्थान के इलाके से पलायन कर यहाँ आकर बसे थे । हम राजा टोडरमल के वंशज हैं...। "
" अच्छा ! वही टोडरमल जो बादशाह अकबर के दरबार के नौ रत्नों में से एक थे ? "
उनका चेहरा दर्प से दमकने लगा और छाती दुगुनी चौड़ी हो गई । मुझे लगा , मानो अचानक ही टोडरमल की आत्मा उनमें प्रवेश कर गई है । वे अपने पूर्वजों का गुणगान करने लगे । उनके अतीत का एक सिरा भले ही टोडरमल से जुड़ता हो , उस संबंध में बताने को उनके पास बहुत कुछ नहीं था । हाँ , जमींदारी जाने की टीस अभी ताजा थी । अँग्रेजी सल्तनत की दौर में उनके पूर्वजों की तूती बोलती थी । उसका असर अब भी बरकरार है । दुर्गापूजा आज भी उनकी हवेली के अहाते में ही होती है और होली गायन की शुरुआत भी वहीं से होती है । हवेली , जी हाँ , वे अब भी सात टुकड़ों में बँटे अपने पुरखों के घर के खंडहर को हवेली कहकर ही संबोधित करते हैं और ऐसा करते हुए उनका मस्तक कुछ इस तरह स्थिर हो जाता है , मानो उसके हिलते ही उस पर रखा रत्नजड़ित ताज धराशाई न हो जाए । 

तो , आज फिर उन्हीं तथाकथित राजा साहब से मुलाकात हो गई । दुआ - सलाम के बाद बात देश की अवस्था - दुरवस्था पर शुरू हुई । उन्होंने वर्त्तमान सरकार के सम्मान में कशीदे काढ़ने शुरू कर दिये । सत्तर वर्षों का हवाला देते हुए कहा कि पहली बार कोई देशभक्त सरकार बनी है , जिसे हिंदू धर्म और संस्कृति के प्रति वाजिब चिंता है , जिसने इन मुल्लाओं की साजिश को समझा है । ये लोग अपनी जनसंख्या का विस्तार कर फिर से अपनी सल्तनत कायम करने के चक्कर में हैं । इस बार ये लोग लोकतंत्र को सीढ़ी बनाकर दिल्ली के तख्त पर बैठने की ख्वाब देख रहे हैं........... । 
सियासी मसलों पर ज्यादातर खामोश रहनेवाले अपने पुराने सहकर्मी को इस तरह धारा प्रवाह बोलते और अपने ही देशवासियों के प्रति जहर उगलते देखकर मैं चकित था । जिनके पूर्वज कभी बादशाह अकबर के दरबार की शान थे , कभी अँग्रेजी सल्तनत के चाटुकार और खिदमतगार थे । वे उस कौम की अलोचना कर रहे हैं , जिसने देश की आजादी के संघर्ष में अगिनत कुर्बानियां दी थी , जिसने इस मुल्क को अपने खून - पसीने से सींचा और विकसित किया । मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो अपलक उन्हें निहारता रहा ।
अब उनसे कहने - सुनने को रह क्या गया था ! वे बुरी तरह घृणा और नफरत के गिरफ्त में थे । शायद , उन्हें अपने बीते हुए सुनहरे दिनों की वापसी की भी खुशफहमी हो । 
उनके चुप होते ही मैंने बात को नया मोड़ देते हुए कहा --- " पता है आपको , सरकार सेल की कई इकाइयों को बेच रही है ? हो सकता है , कल को अपना बोकारो इस्पात संयंत्र भी बिक जाए ! "
यह कहकर मैंने उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए उनकी ओर देखा । सोचा कि जिस संयंत्र में उनके जीवन के सुनहरे दिन बीते थे , जिसकी बदौलत उन्होंने अपने लड़के को इंजीनियर और लड़की को डॉक्टर बनाया था , शायद उसके प्रति उनके मन में कुछ मोह-माया हो । पर , वे लोहे की तरह कठोर और ठंढा साबित हुए । 
" सरकार यदि ऐसा कर रही है , तो देशहित में ही कर रही होगी .....। " , इतना कहकर वे खिड़की से बाहर शून्य में कुछ निहारने लगे ।
मैं निःशब्द उन्हें टुकुर-टुकुर देखता रहा । मुझे लगा , मानो हम रेल की एक ही बोगी में बैठे विपरीत दिशाओं में चले जा रहे हैं ।

  ----- कुमार सत्येन्द्र

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