शादी की पचासवीं वर्षगांठ
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किशोर से युवा , अधेड़
और अब
बुढ़ापे की दहलीज पर
खड़ा था वह
उस पहली छुअन का एहसास
याद है उसे
वह हास - परिहास
हंसी - ठिठोली की सुबह
रूठने - मनाने की शाम
बातों ही बातों में
लंबी रातों का कट जाना
और नींद से बोझिल आंखें लिए
दिन का गुजर जाना.
नादान ही तो थे वे
जब बाँध दिये गए थे
जीवन सूत्र में
घर - संसार के तजुर्बे तो दूर
यह तक न था पता
कि होता है क्या घर - संसार ?
बचपन में खेले गए
गुड्डे - गुड़ियों के खेल सा ही तो
लगा था सबकुछ !
पर , वह खेल नहीं था
मुक्त हो गए थे माता - पिता
अपनी जिम्मेदारी से
सामाजिक उपहास का डर भी
हो गया था तिरोहित
गजब है हमारा समाज !
बेटे - बेटियों का कुंवारापन भी
बनता है यहां
कारण उपहास का !
गुड्डे को अचानक ही हुआ महसूस
कि डाल दी गई है उस पर
एक महती जिम्मेदारी
उस गुड़िया की ,
जिसकी आँखों में हैं
असंख्य रंगीन सपने
दिल में हैं मचलतीं
न जाने कितनी हसरतें
वह निकल पड़ा
करने धनोपार्जन
आखिर सवाल था
घर गृहस्थी बसाने का
पर , तब का समय
इतना बेरहम न था
हो जाता था जुगाड़
किसी काम - धंधे का
एक लंबे जद्दोजहद के बाद
उनका भी घर
आखिर बस ही गया
पर, बड़ा ही विचित्र था
उनका संयोग
छड़ - चुंबक के दो ध्रुवों की तरह
एक साथ भी
और अलग अलग भी
स्वाद से स्वभाव तक
सबकुछ विपरीत
द्वंद्व , द्वंद्व और द्वंद्व
प्रकृति के नियमों से ही
होता रहा संचालित
उनका जीवन
प्रतिकूलता को बनाया अनुकूल
कभी अनुकूलता हो गई प्रतिकूल
पर , जारी रही उनकी
जीवन यात्रा
अनुभव ने सिखाया
पहचानना समय की नज्ब
बिठाना सामंजस्य
करना सम्मान
एक दूसरे की असहमतियों का
आज
पांच दशक बाद
उनका जीवन - वृक्ष
शाखाओं और पत्तियों से
है हरा - भरा
जिसकी छाया में
अपनी - अपनी हसरतों के साथ
दोनों जन जी रहे हैं
अमृत हो या विष
संग - संग पी रहे हैं .
--- कुमार सत्येन्द्र
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