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अग्निवीर


अग्निवीर

खेतों की मेंड़ थी
मेरी जन्मस्थली
धरती की गोद में
धम्म से घिरा था मैं
सूखी घास के बिछावन पर

आकाश है साक्षी
भूखे पेट और सूखे स्तनों से
फूट पड़ा था अमिय धार
सूरज की तपन ने
भर दी थी ऊर्जा

चिथड़े में लिपटा बचपन
अभावों में भी बढ़कर
लिया आकार
जैसे बरगद - पीपल के वृक्ष
उग आते हैं कहीं भी
कभी भी

मौसम की मार झेलते
पिता की खुरदरी हथेलियों ने
धान के बिरवे की तरह
सहलाया मुझे
स्नेह की बारिश की
सींचा, संवारा
आंखों की पुतलियों में
एक क्वांरा सपना सजाया

मां ने बड़ी हसरत से
मेरी पुष्ट होती भुजाओं को
अपलक निहारा
उम्मीदों की पोटली
बांध ली उसने मेरे वजूद से

प्रवेशिका से आगे मैं
पढ़ न सका
महंगी शिक्षा की सीढ़ियां
और चढ़ न सका
सेना में भर्ती होने को ही
अपना लक्ष्य बनाया

देशभक्ति की जज्बा
लगी मारने हिलोरें
मीलों की दौड़ लगाई
रोज भोरे - भोरे

क्या था पता
एक दिन चलेगी कुल्हाड़ी
मेरे सपनों पर चलेगी
सियासत की आरी
छिन जाएगा मुझसे
फौजी का विशेषण
रह जाएगी जिंदगी बनकर
महज एक प्रहसन

अग्निवीर का तमगा
गले में लटकाए
मैं आऊंगा फौज से
और फिर एकदिन
 हो जाऊंगा शामिल
बेकारों की फौज में .
       -- कुमार सत्येन्द्र















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