Skip to main content

हे कवि !



हे कवि !
मत हो विचलित
कि कई सहयात्रियों ने
कर दी स्थगित
अपनी यात्रा
कि कइयों ने
मोड़ दी
अपनी कलम की दिशा
कि कइयों ने तो
बेंच दी अपनी कलम
तवारीख गवाह है
कि हर काल में
जन्मा है विभीषण
जयचंद और मीरजाफर.

हे कवि !
उठो और लिखो
इस युग की गाथा
स्याह को स्याह
सफेद को सफेद लिखो
लिखो
डरी हुई चिड़ियों का कलरव गान
लिखो
भूख से बिलबिलाते बच्चों की
सिसकियों के गीत
स्वर दो
बेपर्द की जा रही औरतों की
दर्दनाक चीखों को
लिखो
पंख नुची तितलियों की
व्यथा - कथा.

हे कवि !
सुनो
ध्यान से सुनो
क्रूर बूटों की आवाज
सारी सभ्यताओं
संस्कृतियों को
बेरहमी से रौंदते
चढ़ बैठे हैं वे
मानवता की छाती पर
बुलडोजरी संस्कृति का भी
किया है नवोन्मेष .

किंतु , चहूंओर गूंजते
उनके अट्टहासों और
चारण गीत के बीच
उठने लगी है
प्रतिरोध की बुलंद आवाज
आओ , इसे नयी धार दो
शब्दों के तीक्ष्ण वाण
उनके सीने में उतार दो.

--- कुमार सत्येन्द्र
































Comments

Popular posts from this blog

अपना ख्याल रखना

अपना ख्याल रखना ***************** बेटे का मैसेज आया है  ह्वाट्सएप पर , पापा ! अपना ख्याल रखना सोचता हूँ मैं , लिख दूँ ..... बेटे ! अपना ही तो रखा है ख्याल आजतक गाँव की जिस माटी ने जाया  उसे छोड़ दिया एकदिन जिन हाथों ने सहारा देकर चलना सिखाया हँसना , कूदना , दौड़ना सिखाया उन्हें दौड़ में बहुत पीछे छोड़ मैं आगे निकल गया फिर कभी मुड़कर नहीं देखा  नहीं ली सुध कभी उनकी अपना ही तो रखता रहा ख्याल नदियों का पानी जब हुआ जहरीला मैंने बंद कर ली अपनी आँखें नगर का जलापूर्ति हुआ बाधित मैंने धरती की छाती छेदकर निकाला पेय जल जब भूगर्भीय जल में पाये  कुछ खतरनाक लवण खरीद लिया जल शोधक मशीन अपना ही तो रखता रहा ख्याल घर को किया चाक-चौबंद रोका मच्छरों की फौज को गंधाती नालियों के दुर्गंध को लगाया घर में वायु शुद्धिकरण यंत्र सूरज की ताप से झुलस न जाऊँ हर कमरे को बनाया वातानुकूलित कब किया औरों का ख्याल  अपना ही तो रखा है ख्याल अबतक तुम्हारी शिक्षा व्यवसायिक हो  प्रतियोगिताओं में  तुम अव्वल आओ लचर थी व्यवस्था सरकारी स्कूलों की हिकारत से देखा उन्हें डाला तुम्हें महँगे निजी स्कूलों में तुम्हारे ...सिर्फ तुम्हारे ही  भ

हत्याओं के दौर में

हत्याओं के दौर में हत्याओं के इस दौर में खेत - खलिहान घर - दालान सब हैं वीरान नहीं लगता चौपाल गांव के चौराहों पर चिपका है भय घर के दीवारों से खो गई हैं कहीं बच्चों की किलकारियां माताओं की लोरियां भूल गए हैं लोग संझा - प्राती नहीं गातीं औरतें जंतसार , सोहर और झूमर ढोल - मंजीरे नहीं बजते मंदिर के चौबारे पर न भजन , न कीर्तन भूल गए हैं लोग होली, बिरहा, लोरकाइन गोगा साव अब भी हैं पर नहीं सुनाते सोरठा - बृजाभार हत्याओं के इस दौर में नहीं हंसते लोग ठठाकर न रोते हैं बुक्का फाड़कर सिसकियों में डूबते - उतराते बंद हो जाते हैं घरों में सूरज के ढलते ही रह जाते हैं गलियों में आवारा कुत्ते या हत्यारे विचरण करते अंधेरे में निर्द्वंद्व , निर्बाध गांव के वक्ष पर पसरा सन्नाटा होता है भंग कभी गोलियों की आवाज से कभी कुत्तों के रुदन से सिहर उठते हैं लोग कुत्तों के रोने को मानते हैं अशुभ क्यों , क्यों हो रहा है ऐसा ? बंद दरवाजों पर दस्तक देते प्रश्न प्रश्नों से कतराते लोग जानते हैं बोलने की सजा एक और खौफनाक मौत किंतु , एक न एक दिन उठेंगे लोग इस दहशतगर्द

फैसला

जब घास का गट्ठर लिए वह घर के दरवाजे पर पहुँचा तो सामने आंगन में गोबर पाथती  सोनमतिया  पर उसकी नजर पड़ी  । उसने चुपचाप आगे बढ़कर  आँगन  के एक कोने में सिर के बोझ को हल्का  किया और  धम्म से जमीन पर बैठकर  सुस्ताने लगा  । सोनमतिया एकटक  उसके  चेहरे को  देखे जा रही थी । वह खामोश  माथे पर  हाथ  रखे बैठा था ।          जब चुप्पी असह्य हो गई तो सोनमतिया ने पूछा, " कहाँ थे आज दिनभर..? न तो मलिकवा के काम में गए और न ही घर खाना खाने आए? " " गला सूखा जा रहा है, कुछ पानी - वानी भी दोगी या जवाब सवाल ही करती रहोगी। " -- माथे  पर चू आए पसीने को गमछे से पोंछते हुए उसने पत्नी को झिड़का।  तेजी से वह उठी और हाथ धोकर कोने में रखे घड़े से पानी ढालकर लोटा उसकी ओर बढ़ाते हुए फिर सवाल किया, " सुना है, आज तुम मलिकवा से लड़ आए हो  ? " " अरे, हम क्या लड़ेंगे, हम तो ठहरे जन्मजात गुलाम! हमारी क्या बिसात जो मालिकों से लड़ें - भिड़ें  ! " -- डूबती आवाज में बोला हरचरना और लोटा लेकर गटागट एक ही सांस में पूरा पानी पी गया।  अब सोनमतिया को बुधिया काकी की बातों पर अविश्वास न रहा। खान