हत्याओं के दौर में हत्याओं के इस दौर में खेत - खलिहान घर - दालान सब हैं वीरान नहीं लगता चौपाल गांव के चौराहों पर चिपका है भय घर के दीवारों से खो गई हैं कहीं बच्चों की किलकारियां माताओं की लोरियां भूल गए हैं लोग संझा - प्राती नहीं गातीं औरतें जंतसार , सोहर और झूमर ढोल - मंजीरे नहीं बजते मंदिर के चौबारे पर न भजन , न कीर्तन भूल गए हैं लोग होली, बिरहा, लोरकाइन गोगा साव अब भी हैं पर नहीं सुनाते सोरठा - बृजाभार हत्याओं के इस दौर में नहीं हंसते लोग ठठाकर न रोते हैं बुक्का फाड़कर सिसकियों में डूबते - उतराते बंद हो जाते हैं घरों में सूरज के ढलते ही रह जाते हैं गलियों में आवारा कुत्ते या हत्यारे विचरण करते अंधेरे में निर्द्वंद्व , निर्बाध गांव के वक्ष पर पसरा सन्नाटा होता है भंग कभी गोलियों की आवाज से कभी कुत्तों के रुदन से सिहर उठते हैं लोग कुत्तों के रोने को मानते हैं अशुभ क्यों , क्यों हो रहा है ऐसा ? बंद दरवाजों पर दस्तक देते प्रश्न प्रश्नों से कतराते लोग जानते हैं बोलने की सजा एक और खौफनाक मौत किंतु , एक न एक दिन उठेंगे लोग इस दहशतगर्द
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