Skip to main content

लाल देह


लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लँगूर।
बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर॥

अर्थ: लाल रंग का सिंदूर लगाते हैं ,देह जिनकी लाल हैं और लंबी सी पूंछ हैं वज्र के समान बलवान शरीर हैं जो राक्षसों का संहार करते हैं ऐसे कपि देवता को बार बार प्रणाम।
 यही पढ़ा था. 
यही सुना था. 
देखी थी यही छवि  
फोटो व कैलेंडर में. 
पर, अचानक हुआ बदलाव
 तुम्हारे रंग - रूप में 
न तुम्हारा बदन  रहा लाल
 न ही तुम्हारे झंडे 
और न रही तुम्हारे
 चेहरे की सौम्यता 
केशरिया रंग के झंडे पर
तनी हुई भृकुटियां
 आंखें तरेरे -  नथुना फुलाए
 यह रौद्र रूप 
पहले तो कभी नहीं देखा.
 फिर वे कौन हैं 
जो कर रहे हैं विकृत
तुम्हारे चेहरे को
बदल रहे हैं
 तुम्हारे बदन और झंडे के रंग को
 तुम्हारी पहचान छिनने की यह कोशिश 
क्यों हो रहा है प्रभु 
किसकी साजिश है यह  ? 
 
-- कुमार सत्येन्द्र

Comments

Popular posts from this blog

अपना ख्याल रखना

अपना ख्याल रखना ***************** बेटे का मैसेज आया है  ह्वाट्सएप पर , पापा ! अपना ख्याल रखना सोचता हूँ मैं , लिख दूँ ..... बेटे ! अपना ही तो रखा है ख्याल आजतक गाँव की जिस माटी ने जाया  उसे छोड़ दिया एकदिन जिन हाथों ने सहारा देकर चलना सिखाया हँसना , कूदना , दौड़ना सिखाया उन्हें दौड़ में बहुत पीछे छोड़ मैं आगे निकल गया फिर कभी मुड़कर नहीं देखा  नहीं ली सुध कभी उनकी अपना ही तो रखता रहा ख्याल नदियों का पानी जब हुआ जहरीला मैंने बंद कर ली अपनी आँखें नगर का जलापूर्ति हुआ बाधित मैंने धरती की छाती छेदकर निकाला पेय जल जब भूगर्भीय जल में पाये  कुछ खतरनाक लवण खरीद लिया जल शोधक मशीन अपना ही तो रखता रहा ख्याल घर को किया चाक-चौबंद रोका मच्छरों की फौज को गंधाती नालियों के दुर्गंध को लगाया घर में वायु शुद्धिकरण यंत्र सूरज की ताप से झुलस न जाऊँ हर कमरे को बनाया वातानुकूलित कब किया औरों का ख्याल  अपना ही तो रखा है ख्याल अबतक तुम्हारी शिक्षा व्यवसायिक हो  प्रतियोगिताओं में  तुम अव्वल आओ लचर थी व्यवस्था सरकारी स्कूलों की हिकारत से देखा उन्हें डाला तुम्हें महँगे निजी स्कूलों में तुम्हारे ...सिर्फ तुम्हारे ही  भ

हत्याओं के दौर में

हत्याओं के दौर में हत्याओं के इस दौर में खेत - खलिहान घर - दालान सब हैं वीरान नहीं लगता चौपाल गांव के चौराहों पर चिपका है भय घर के दीवारों से खो गई हैं कहीं बच्चों की किलकारियां माताओं की लोरियां भूल गए हैं लोग संझा - प्राती नहीं गातीं औरतें जंतसार , सोहर और झूमर ढोल - मंजीरे नहीं बजते मंदिर के चौबारे पर न भजन , न कीर्तन भूल गए हैं लोग होली, बिरहा, लोरकाइन गोगा साव अब भी हैं पर नहीं सुनाते सोरठा - बृजाभार हत्याओं के इस दौर में नहीं हंसते लोग ठठाकर न रोते हैं बुक्का फाड़कर सिसकियों में डूबते - उतराते बंद हो जाते हैं घरों में सूरज के ढलते ही रह जाते हैं गलियों में आवारा कुत्ते या हत्यारे विचरण करते अंधेरे में निर्द्वंद्व , निर्बाध गांव के वक्ष पर पसरा सन्नाटा होता है भंग कभी गोलियों की आवाज से कभी कुत्तों के रुदन से सिहर उठते हैं लोग कुत्तों के रोने को मानते हैं अशुभ क्यों , क्यों हो रहा है ऐसा ? बंद दरवाजों पर दस्तक देते प्रश्न प्रश्नों से कतराते लोग जानते हैं बोलने की सजा एक और खौफनाक मौत किंतु , एक न एक दिन उठेंगे लोग इस दहशतगर्द

फैसला

जब घास का गट्ठर लिए वह घर के दरवाजे पर पहुँचा तो सामने आंगन में गोबर पाथती  सोनमतिया  पर उसकी नजर पड़ी  । उसने चुपचाप आगे बढ़कर  आँगन  के एक कोने में सिर के बोझ को हल्का  किया और  धम्म से जमीन पर बैठकर  सुस्ताने लगा  । सोनमतिया एकटक  उसके  चेहरे को  देखे जा रही थी । वह खामोश  माथे पर  हाथ  रखे बैठा था ।          जब चुप्पी असह्य हो गई तो सोनमतिया ने पूछा, " कहाँ थे आज दिनभर..? न तो मलिकवा के काम में गए और न ही घर खाना खाने आए? " " गला सूखा जा रहा है, कुछ पानी - वानी भी दोगी या जवाब सवाल ही करती रहोगी। " -- माथे  पर चू आए पसीने को गमछे से पोंछते हुए उसने पत्नी को झिड़का।  तेजी से वह उठी और हाथ धोकर कोने में रखे घड़े से पानी ढालकर लोटा उसकी ओर बढ़ाते हुए फिर सवाल किया, " सुना है, आज तुम मलिकवा से लड़ आए हो  ? " " अरे, हम क्या लड़ेंगे, हम तो ठहरे जन्मजात गुलाम! हमारी क्या बिसात जो मालिकों से लड़ें - भिड़ें  ! " -- डूबती आवाज में बोला हरचरना और लोटा लेकर गटागट एक ही सांस में पूरा पानी पी गया।  अब सोनमतिया को बुधिया काकी की बातों पर अविश्वास न रहा। खान