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कोविड -- 19

कोशिश -- 19

" सुनती हो जी....! कहाँ हो  ? "
" क्या हुआ  ? कीचन में हूँ..। "
" अच्छा...! चाय बना रही हो क्या  ? "
" हाँ जी, दिन भर बैठे - बैठे और क्या करें  ! "
" ठीक है, एक कप और बढ़ा देना  ..! "
" क्यों..? इस लॉक डाउन में कौन आ रहा है  ? "
" अरे, और कौन आएगा.... सामने वाले पांडे जी ने फोन किया है.... वे ही आ रहे हैं  । " -- हंसते हुए राघो बाबू ने पत्नी को जवाब दिया। 
चाय के भगौने में चीनी डालते हुए कांति देवी का मुंह कड़वा - सा हो गया। पांडे जी के आने से वह खुश नहीं होती है। वे जब भी आते हैं, फिजूल की बहस में उलझ जाते हैं। और इस लॉक डाउन में जबकि टीवी पर दिन - रात सबको अपने - अपने घर में रहने की हिदायत दी जा रही है, वे रोज ही शाम को टपक जाते हैं। इस बात को लेकर राघो बाबू से कल भी इनकी खूब तकरार हुई थी। 
" जब बाहरी आदमी का घर में आना - जाना लगा ही रहेगा तो लॉक डाउन  का क्या मतलब  ? "-- पांडे जी के जाते ही कांति देवी ने कहा था ।
" अरे , लॉक डाउन  का मतलब यह थोड़ी ही है कि आप अड़ोस - पड़ोस  से भी विमुख  हो जाओ। "-- राघो  बाबू  ने हँसते  हुए  जवाब  दिया था ।
" किंतु , सरकार  के हिदायतों  में , वो क्या कहते  हैं , सोशल डिस्टेंसिंग की बात  कही गई  है । "
" अरे भाई  , सरकार ने यहॉं  गलत शब्द का प्रयोग किया है । उसे सोशल डिस्टेंसिंग की जगह  फिजिकल डिस्टेंसिंग कहना चाहिए। सारी हिदायतों के साथ शारीरिक  दूरी रखते हुए सामाजिक एकजुटता कायम कर के ही हम इस बिमारी से लड़ा जा सकता है। वरना , अपने - अपने दड़बे में बंद लोग  डिप्रेशन के शिकार हो जायेंगे। "
" हां, सबसे बुद्धिमान आप ही तो हैं ! आखिर  मोबाईल फोन किसलिए है और  अब तो विडियो कॉलिंग की भी सुविधा है ।"
" हाँ भाई, दूर रहने वालों से तो मोबाईल फोन पर ही बात होती है। किन्तु, पड़ोसियों से तो मिल - बैठकर ही बात करना अच्छा लगता है। "--- राघो बाबू ने हंसते हुए कहा। 
" अच्छा लगने के चक्कर में कहीं लेने के देने न पड़ जाए। "-- कांति देवी ने भविष्य के प्रति आशंका व्यक्त किया। 
" अरे, ऐसा कुछ न होगा। वैसे अपने शहर में अभी एक भी केस न हुआ है। यहाँ तो देख ही रहे हो कि लोग किराना सामान और सब्जियां खरीदने के लिए बाजार तक जा रहे हैं। "
" सो तो है,  पर टीविया पर कहता है कि यह रोग खुद चलकर कहीं नहीं जाता। लोग बाहर जाकर खुद ही इसे आमंत्रित करते हैं। "---- कांति देवी ने हंसते हुए कहा। राघो बाबू ने उनकी बात अनसुनी कर दी। 
दरअसल, पांडे जी सिर्फ उनके पड़ोसी नहीं थे, उनके सहकर्मी भी रहे थे। दोनों ने प्लांट की नौकरी एक साथ शुरू की थी। राघो बाबू जूनियर ऑपरेटर और पांडे जी रीगर के रूप में। एक ही ग्रामीण परिवेश के होने के कारण दोनों की पारिवारिक स्थितियां और जरूरतें लगभग एक सी थीं। यह भी संयोग ही था कि सेवाकाल में रहा वर्षों का साथ सेवानिवृत्ति के बाद भी बना रहा। राघो बाबू अनायास ही अपने अतीत में विचरने लगे। कहते भी हैं कि साठ - सत्तर वर्ष की आयु में पहुँचने के बाद भविष्य की कोई परिकल्पना नहीं होने पर आदमी अतीतजीवी हो जाता है। 
राघो बाबू के साथ अक्सर ऐसा होता है। जब भी वे एकांत में होते हैं, पुराने दिनों की स्मृतियों में खो जाते हैं। आह ! वो भी क्या दिन थे  ! पंचवर्षीय योजना के तहत देश में चारो ओर नवनिर्माण हो रहा था। छोटे - छोटे कल - कारखाने खड़े हो रहे थे। रेलवे का पूरे देश में विस्तार हो रहा था। असंख्य पुल - पुलिया और छोटे - बड़े बांधों का निर्माण जारी था। लोहे का डिमांड अत्यधिक बढ़ गया था। किसी भी देश में हो रहे विकास का पैमाना लोहा - इस्पात की खपत को ही माना जाता है। आजाद भारत के चार बड़े इस्पात कारखानों में से एक था -- बोकारो स्टील प्लांट। युवा प्लांट और युवा मजदूर। उत्पादन की होड़ लगी रहती। जैसे - जैसे प्लांट का विस्तार होता, वैसे - वैसे मजदूरों की संख्या बढ़ती जाती और उसी अनुपात में रिहायशी इलाके का भी निर्माण होता। चूंकि प्लांट सोवियत संघ के सहयोग से खड़ा हुआ था, नगर का निर्माण भी उन्हीं की योजना के अनुरूप किया जा रहा था। जनवृत्तों में विभाजित नगर। कतारबद्ध और समरूप क्वार्टर्स। हर एक जनवृत्त में एक शॉपिंग सेंटर, एक सामुदायिक विकास केंद्र, एक प्राइमरी हेल्थ सेंटर, एक मेंटेनेंस शॉप और एक विद्यालय। इसके अलावा, एक केंद्रीयकृत बड़ा अस्पताल, कई हजार पुस्तकों से सुसज्जित केंद्रीय पुस्तकालय , हर एक जनवृत्त में बच्चों के लिए खेल का मैदान , एक भव्य स्टेडियम और सिटी पार्क के साथ ही नाना प्रकार के पशुओं - पक्षियों से भरा एक जैविक उद्यान । मिट्टी से फौलाद बनाने वाले श्रमिकों के लिए वो सारी सुविधाएं इस्पात नगर में उपलब्ध थीं, जिनसे कठिन परिश्रम के बाद उनका मनोरंजन हो सके। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ऐसे ही औद्योगिक नगरों को आधुनिक तीर्थ स्थल की संज्ञा दी थी। आज उन्हीं की पार्टी की सरकार की नीतियों के कारण वह सुंदर नगर पूरी तरह बसने से पहले ही उजड़ने लगा। प्लांट की वर्त्तमान स्थिति और इस्पात नगर के खास्ता हाल की ओर जब भी उनका ध्यान जाता है, एक गहरी उदासी उनके चेहरे पर छा जाती है। वे इन्हीं ख्यालों में खोए थे कि दरवाजे की घंटी बज उठी। 
 राघो बाबू ने उठकर दरवाजा खोला। सामने पांडे जी मुस्कुराते हुए खड़े थे। 
" आइए पंडित जी, स्वागत है  ! "
" कैसे हैं सिंह जी  ? "--- घर में दाखिल होते हुए पांडे जी ने पूछा। 
" खुद ही देख लीजिए, बिलकुल ठीक हूँ। "
" हाँ भाई, हमें क्या होगा... जब मोदी है तो सब मुमकिन है "--- कुर्सी पर बैठते हुए पांडे जी ने कहा और हंस दिया। 
" हाँ जी, बिलकुल मुमकिन है, वरना कोरोना वायरस इतना क्यों और कैसे फैलता ! "
" अच्छा... तो आपको यह नहीं पता कि कोरोना कौन फैला रहा है  ! अरे सिंह जी, अब तो यह क्लियर हो चुका है कि यह कितनी बड़ी साजिश थी , इन तबलीगी जमातियों की। मीटिंग के बहाने वो सब हजारों की संख्या में दिल्ली के एक मस्जिद में जमा हुए और अब कई राज्यों के मस्जिदों में छुप- छुप कर इसे फैला रहे हैं। "
" पांडे जी, लगता है कि आप भी गोदी मीडिया के शिकार हो गए हैं, " राघो बाबू ने हंसते हुए कहा, " आपको पता भी है कि कोरोना का पहला मरीज अपने देश में कब और कहाँ डिटेक्ट हुआ था? .... केरल में और महीना था जनवरी। तब हमारी केंद्र सरकार ने उसे गंभीरता से नहीं लिया और पूरा फरवरी हम " नमस्ते ट्रंप " की तैयारी में लगे रहे.....। "
" अरे, वह तो करना ही था न भाई! अंतर्राष्ट्रीय प्रोग्राम था और बहुत पहले से ही तय था। वैसे फरवरी में कोरोना के ज्यादा केस भी नहीं हुए थे। केस तो एकाएक तब बढ़ने लगे, जब वे लोग दिल्ली से छिप- छिपाकर अन्य कई राज्यों में पहुँच गए। "
" यह बार - बार आप ये लोग - वो लोग क्या कर रहे हैं? आपको पता है, फरवरी के मध्य में ही सरकार ने एक एडवाइजरी जारी किया था कि दो सौ से अधिक लोग कहीं भी इकट्ठा न हों। फिर दिल्ली में तबलीगी जमात का मरकज़ क्यों होने दिया गया? जबकि इसी जमात का मरकज़, जो 12 - 13 मार्च को मुंबई में होना था, को वहाँ की सरकार ने दिया हुआ परमिशन कैंसिल कर दिया था....।"
" हाँ तो यहाँ भी केजरीवाल को कैंसिल कर देना चाहिए था । "--- पांडे जी ने तपाक से कहा। 
" अरे भाई, केजरीवाल कैसे कैंसिल करता ! नहीं मालूम, दिल्ली का पुलिस प्रशासन केंद्र सरकार के हाथ में है? हमारे पी एम साहब एक भी काम ढंग से तो करते नहीं! पता नहीं, इनको आठ बजे रात से इतना लगाव क्यों है? ... नोटबंदी की घोषणा आठ बजे, लॉकडाऊन की घोषणा आठ बजे.....! "--- कहते - कहते राघो बाबू को जोरदार छींक आ गई। 
डाक्टरों के निर्देशानुसार उन्होंने अपनी कोहनी को मोड़ते हुए छींका। पांडे जी के माथे पर कुछ देर के लिए शिकन सी पड़ गई। किंतु, उनकी छींक को नजरअंदाज करते हुए उन्होंने कहा , " अच्छा छोड़िये , कौन फैलाया, कैसे फैलाया। यह बताइये कि कल आपने मोमबत्ती क्यों नहीं जलाई थी, आपके घर की बत्ती भी गुल नहीं हुई थी? "
" यह कोई सरकारी फरमान था क्या, और इससे कोरोना का क्या संबंध...? "
" नहीं, कोरोना का तो कोई संबंध न है। परंतु, एकजूटता का प्रदर्शन तो करना था न! जब शत्रु से जंग छिड़ जाए तो देश की एकता बहुत मायने रखती है सिंह जी! "
" जंग.....! यह कैसी जंग है भाई, जिसमें हम इतने खतरनाक दुश्मन से बिना हरवे  - हथियार के ही लड़ने पहुँच जाएं? सिर्फ एका और कल जैसे टोना - टोटका से इस जंग को हम नहीं जीत पायेंगे पांडे जी! बचाव और इलाज के लिए आवश्यक उपकरण चाहिए, अस्पताल और वेंटिलेटर चाहिए, जिसकी पर्याप्त व्यवस्था ही हमारे पास नहीं है। "
" अरे, कितनी भी व्यवस्था की जाए, उनलोगों के कारण सब फेल हो जाएगा। आप नहीं जानते इन लोगों का प्लान। ताबड़तोड़ जनसंख्या बढ़ाते जा रहे हैं ताकि एकदिन बहुसंख्यक बन जाएं और भारत को.......। "
" बस कीजिये महाराज  ! आप तो पूरी तरह जहरीला हो चुके हैं। इस विषय को लेकर कई बार हमारे बीच बहस हो चुकी है। हमने कई बार उदाहरण देकर आपको समझाया है। पर, आप हैं कि समझना ही नहीं चाहते। आप ही जैसे लोगों ने घर - परिवार और मोहल्ले में नफरत का जहर फैला दिया है। अभी कल की ही घटना है। मैं दूध लेकर आ रहा था तो देखा कि मेरे पड़ोसी का लड़का अंसारी मोहल्ले से आई एक छोटी सी बच्ची को गली में लगे निगम के कल से पानी लेने से रोक रहा है। मेरे टोकने पर कहने लगा --- आप नहीं जानते अंकल  ! ये लोग मस्जिद में जमातियों को छिपाकर कोरोना फैलाते हैं। मैंने उसे समझाते हुए कहा कि ऐसा नहीं है बेटा, यह सब टीवी चैनलों द्वारा फैलाया जा रहा दुष्प्रचार है। तुम ही सोचो कि ऐसा करने पर तो खुद उनके मोहल्ले में यह रोग और भी तेजी से फैलेगा। कुछ गलतियां कहीं हुई भी होंगी तो उसके कारण कुछ और रहे होंगे। मेरे हस्तक्षेप के बाद उसने उस बच्ची को पानी लेने दिया। .... पांडे जी! क्या आपको नही लगता कि इस तरह नफरत फैलाकर समाज को बांटने से अपना देश कमजोर होगा? " 
" हम भले ही ऐसा सोचते हैं सिंह जी, पर वे लोग ऐसा नहीं सोचते। उन्हें तो देश को भीतर से कमजोर करना है। तभी तो लगे हुए हैं दीमक की तरह चाट - चाटकर देश को खोखला करने में। "
" आप ऐसा क्यों सोचते हैं पांडे जी  ? क्या यह देश उनका नहीं है? देश के विकास में उनका योगदान हमसे कम है क्या? उत्पादन बढ़ाने के लिए वे लोग क्या हमसे कम खून - पसीना बहाते हैं? ...... एक बात तो आप अपने दिल से निकाल ही दीजिये पांडे जी कि यह देश सिर्फ हिंदुओं का है। यह देश जितना हमारा है, उतना ही मुसलमानों, क्रिश्चियनों, बौद्धों, जैनियों, सिक्खों या अन्य धर्मावलंबियों का है। इस देश की मुक्ति संग्राम में हम सभी के पुरखों ने कुर्बानी दी थी, सबके खून मिले हुए हैं यहाँ की मिट्टी में......। "
बहस अभी और लंबी खिचती कि तभी चाय की ट्रे लिये कांति देवी ने प्रवेश किया और ट्रे को टेबल पर रखते हुए बोली, " भाई साहब! मैंने तो बहुत कोशिश की कि अड़ोस पड़ोस की तरह मैं भी बिजली बंद कर मोमबत्तियां जलाऊँ। किन्तु, आप तो इन्हें जानते हैं न कि कितना जिद्दी हैं। कहने लगे, मैं इन टोटकों को बाहियात मानता हूँ..... मेरे घर की बत्तियां नहीं बुझेंगी... बस, और आगे कोई बहस नहीं। "
कांति देवी का आना पांडे जी के लिए कोई राहत से कम नहीं था। पता नहीं, इस टॉपिक पर सिंह जी का और कितना भाषण सुनना पड़ता! 
उन्होंने हंसते हुए कहा, "भाभी जी, आपको क्या बताऊँ! मोहल्ले के कुछ लौंडों ने मुझे फोन कर के पूछा था कि सिंह जी की बत्तियां क्यों जल रही हैं चाचा, तो मैंने मजाकिया लहजे में कह दिया कि छोड़ो उनको... वे विपक्ष वाले हैं। " -- कहकर पांडे जी ने हो.. हो.. कर हंस दिया और चाय पीने लगे। 
चाय की चुस्कियों के बीच राघो बाबू ने थोड़ी तल्ख़ी से कहा--" वही लौंडे न, जो पटाखे और फुलझड़ियां छोड़ रहे थे और बाद में सड़क पर जुलूस निकाल रहे थे! अ सोचिए जरा, उन्होंने लॉकडाऊन के नियमों के साथ कैसासुलूक किया....? " -- इतना कहते - कहते उन्हें फिर छींक आ गई। पांडे जी की घबराहट थोड़ी और बढ़ गई। वे मन ही मन सोचने लगे... कहीं राघो बाबू को...... फिर दिल को समझाया.... नहीं - नहीं, मामूली सर्दी भी तो हो सकती है.... ध्यान हटाने के लिए उन्होंने बात के टूटे सिरे को पकड़ते हुए कहा -- " हाँ सिंह जी, वह तो लड़कों ने जोश में होश खो दिया था, बाकि मोदी जी को मानना पड़ेगा, इतनी बड़ी विपदा को क्या ही बढ़िया से हैंडल कर रहे हैं और सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज पूरा देश उनके साथ खड़ा है। गजब का चमत्कारी नेता हैं मोदीजी  ! "
" क्यों नहीं, इससे अच्छा हैंडलिंग और क्या हो सकता है कि डॉक्टरों - नर्सों के लिए कोई सुरक्षा पोशाक नहीं है, पर्याप्त मात्रा में न तो टेस्टिंग कीट्स हैं, न अस्पतालों में वेंटिलेटर्स हैं और न ही पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन उपलब्ध है। उधर उद्योग - धंधों के अचानक ही बंद हो जाने के कारण लाखों लोग सड़क पर आ गये हैं। यातायात के साधन एकाएक बंद हो जाने से करोड़ों लोग जहाँ - तहाँ बुरी तरह फंसे हुए हैं। बड़े - बड़े महानगरों से हजारों मजदूर और उनके परिवार भूखे - प्यासे पैदल ही अपने गाँव के लिए निकल पड़े हैं। पूरे देश में बदहवासी का आलम है। अरे भाई , जब लॉकडाऊन ही करना था तो दो - चार दिनों की मोहलत दे देते, जिसे जहाँ आना - जाना था, चला जाता। पर इन्होंने महज चार घंटे का समय दिया...। " -- कहते - कहते इस बार उन्हें छींक के साथ - साथ खांसी भी आ गई। 
अब पांडे जी की घबराहट अपने चरम पर पहुँच गई। उन्होंने मन ही मन खुद को कोसा.... गलती हो गई, आज नहीं आना चाहिए था....पता नहीं यह ससुरी बीमारी कब किसे लग जाए  । इनके लक्षण भी अच्छे नहीं दीख रहे । उन्होंने चाय की आखिरी चुस्की ली और कहा, " अच्छा सिंह जी, अभी चलता हूँ..... एक बहुत ही जरूरी काम याद आ गया। "
इससे पहले कि राघो बाबू अपनी चाय खत्म कर उन्हें दरवाजे तक छोड़ने जाते, वे जा चुके थे। 
       अब यह सर्वविदित हो चुका था कि एक  कोरोना वायरस, जिसे " कोविड -- 19 " से नामित किया गया है, बड़े ही खतरनाक ढंग से संक्रमित होता है। भविष्य में यह साल " कोरोना वायरस " के नाम से जाना जाएगा। ठीक वैसे ही जैसे 1918 ई. स्पैनिश फ्लू के नाम से जाना जाता है। हलांकि, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे " चीनी वायरस " कहकर संबोधित किया है। चीन को इस संबोधन से खासा एतराज है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इसका नामकरण किया है --- " कोशिश -- 19 " । तो, इसे कोविड -- 19 कहना ही उचित होगा। अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार सबसे पहले चीन के बुहान शहर में इस खतरनाक वायरस का जन्म हुआ। वहाँ के वैज्ञानिकों की मानें तो यह वायरस चमगादड़ों से पैंगोलिन और उससे मनुष्यों के शरीर में प्रवेश किया। ध्यातव्य हो कि बुहान शहर में पशुओं - पक्षियों के मांस का एक बहुत बड़ा बाजार है, जहाँ से चीन के बाहर भी कई देशों में मांस का निर्यात होता है। 
बहरहाल, बुहान में जन्मा कोरोना वायरस फैलकर दुनिया के कई देशों में कहर बरपाए हुए है। स्पेन, जर्मनी, इटली आदि देशोदेश में तो इसने इतना घातक रूप अख्तियार कर लिया है कि वहाँ आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे वैश्विक महामारी बताते हुए सभी देशों को अगाह किया है कि सभी देश इससे बचाव की तैयारी करें। चूंकि इस बीमारी का अभी कोई वैक्सीन नहीं है और न ही इससे लड़ने की कोई स्पेसिफिक दवा ही अब तक ईजाद हो पाई है, सावधानी बरतना ही इसका एकमात्र बचाव है। 
                  अखबारों एवं टीवी चैनलों से परोसी जा रही इन खबरों ने राघो बाबू को तब तक परेशान नहीं किया था, जब तक भारत सरकार ने इसके खिलाफ जोरदार अभियान नहीं छेड़ा था। 22 मार्च, 2020 को पूरे देश में 12 घंटे की कर्फ्यू के साथ ही कोरोना के खिलाफ जंग का आगाज हुआ। फिर तो मोबाईल की ट्यून से लेकर टीवी चैनलों के स्वर तक बदल गए। 23 मार्च की शाम आठ बजे जब प्रधानमंत्री ने 21 दिनों के लिए संपूर्ण देश में तालाबंदी की घोषणा की तो मानो कोरोना ने हर घर की दहलीज पर दस्तक दे दी। कब, कहाँ , कैसे यह बीमारी संक्रमित होती है और इससे बचाव के क्या - क्या उपाय हैं, अनायास ही हवा में तैरने लगे। बताया गया कि अल्कोहल युक्त सेनिटाइजर और साबुन से उत्पन्न झाग ही उसे नष्ट कर सकते हैं। इसलिए साबुन से हाथ धोने की हिदायत सभी संचार माध्यमों से लगातार प्रचारित किया जाने लगा। संक्रमित व्यक्ति के छींकने या खांसने से सामने वाला व्यक्ति भी प्रभावित हो सकता है, अतः सबको मास्क लगाना अनिवार्य कर दिया गया। कोरोना के वायरस हर आदमी का पीछा करने लगे। लोगों ने डरकर अपने घर के दरवाजे आगंतुकों के लिए बंद कर दिये। दिन में भी सड़कों पर या छोटी - बड़ी गलियों में दूर - दूर तक सन्नाटा पसर गया। शाम के बाद यह खामोशी और भी गहराने लगती। रात के सन्नाटे को चीरती हुई जब कभी कुत्तों के भौंकने या रोने की आवाज वातावरण में गूंजती तो भयावहता और भी बढ़ जाती। देखते - देखते सारे बड़े - बड़े जीवंत शहर मृतप्राय हो गए। दिन - रात लगातार भागता - दौड़ता शहर ठहर सा गया। हलांकि, राघो बाबू के शहर में अभी एक भी केस सामने नहीं आया था। इसलिए लोग थोड़े आश्वस्त और बेफिक्र दीख रहे थे। शहर की सारी दूकानें तो बंद थी ही, गाड़ियों के परिचालन पर भी रोक लगा दी गई थी। दो पहिए चालकों को भी पुलिस के डंडे खाने पड़ रहे थे। लोगों ने बाजार की भीड़ - भाड़ वाली सड़कों के साथ ही शहर के मुख्य मार्ग पर भी पैदल चलना बंद कर दिया था। दो दिनों तक तो दवा सहित किराने और सब्जियों की दूकानें भी बंद रहीं। इससे लोगों की परेशानियां बढ़ गईं। तब प्रशासन ने दूकानों को सुबह सात से रात्रि सात तक खुला रखने की इजाजत दे दी। किन्तु, तालाबंदी के दो - चार दिनों के अंदर ही प्रतिदिन खटकर खाने वालों के घर फांकाकशी की स्थिति उत्पन्न हो गई। दिहाड़ी मजदूरों, घरों में काम करने वाली दाइयों या साइकिल - ठेला पर इडली - दोसा बेचने वालों को परिवार चलाने की चिंता सताने लगी। 
किसी ने आकर राघो बाबू को बताया कि मोहल्ले में कुछ परिवारों के भूखों रहने की नौबत आ गई है तो उन्होंने तत्काल पड़ोस के कुछ नौजवानों से संपर्क किया और लोगों के सहयोग से बेहद जरूरतमंदों के बीच राशन बांटने की योजना बनाई। हलांकि सरकार ने जनवितरण प्रणाली से गरीबों के बीच मुफ्त राशन बांटने की घोषणा की थी। पर, वह कब आएगा और जरूरतमंदों को मिलेगा, यह अनिश्चित था। राघो बाबू इन ढपोरशंखी घोषणाओं से वाकिफ थे। पत्नी द्वारा इस संबंध में जिक्र करने पर उन्होंने कहा भी, " तुम नहीं जानती इन घोषणाओं के बारे में। यदि राशन आएगा भी तो इतना देर से आएगा कि तबतक कई घरों के चूल्हे बुझ  जाएंगे और बच्चे - बूढ़े दम तोड़ देंगे। "
पत्नी के प्रतिरोध को नजरअंदाज कर वे अपने काम में जुट गए। जिस इलाके में राशन बांटना होता, उसमें एक दिन पहले उनके टीम के लड़के घूम घूम कर जरूरतमंदों की लिस्ट बनाते और दूसरे दिन बाईक, स्कूटी और साईकिल की मदद से उस इलाके में राशन की थैलियां बांट आते। 
राघो बाबू के मूवमेंट को लेकर पत्नी बहुत ही चिंतित रहती। उनके दबाव के कारण वे प्रतिदिन भले ही अपने टीम के साथ राशन वितरण करने न जायें, पर राशन की थैलियों को तैयार करने के समय अवश्य रहते थे। बाजार से चावल, दाल, आटा, बिस्कुट, तेल, आलू आदि खरीदकर लाया जाता और कभी मंदिर के बरामदे में या कभी किसी खटाल में बैठकर उन सामानों को पोलिथीन  की थैलियों में भरकर राशन - कीट तैयार किया जाता। इस कार्य में मोहल्ले के नौजवान बड़े ही उत्साह से भाग लेते। 
राघो बाबू के लिए यह काम कोई नया नहीं था। मजदूर यूनियन में सक्रिय रहने के कारण वे राजनीतिक - सामाजिक गतिविधियों  में शामिल रहा करते थे। चेर्नोबिल के परमाणु संयंत्र की दुर्घटना हो, अर्मीनिया में आई भूकंप हो या बिहार में आई भयंकर बाढ़ यूनियन के साथियों के साथ घर - घर जाकर पैसे और कपड़े एकत्रित किये और भिजवाये थे। देश - विदेश में जहाँ कहीं भी प्राकृतिक आपदा आती, उनकी यूनियन सक्रिय हो जाती। वे कुछ पल के लिए अपने अतीत में खो गए । इस बीच थैलियां भरी जा चुकी थीं और राशन - किट्स तैयार हो चुके थे। राघो बाबू ने नवयुवकों से बिदा ली और अपने घर की ओर चल दिए। 
बोकारो स्टील सिटी और चास जुड़वां शहर है। दोनों को अलग करती हुई एक छोटी सी नदी है -- गरगा और दोनों को जोड़ने के लिए छोटे - बड़े तीन - चार पुल। चास का विकास बोकारो स्टील सिटी के विकास से नाभिलाबद्ध है। कभी लाह की खेती‌ और व्यापार से जुड़ा था यह क्षेत्र। आज उसका नामोनिशान तक नहीं है। 
मनुष्य की जरूरतें उसके रहन - सहन, सोच - विचार, गीत - संगीत, यहाँ तक कि उसके पेशे तक को प्रभावित करती हैं। बोकारो इस्पात संयंत्र की स्थापना के साथ ही चास का स्वरूप बदलने लगा था। कहा भी जाता है कि " नीड " और " ग्रीड " किसी भी जगह की डेमोग्राफी को बदल देते हैं। यही चास के साथ हुआ। बिहार के सभी जिलों से तो लोग आज ही, दूसरे राज्यों से भी लोग रोजी - रोटी की तलाश में यहाँ आकर बस गए। खटाल वाले, रेड़ी - ठेले वाले, छोटी गुमटी वाले से लेकर छोटे - बड़े व्यापारियों तक ने चास में जमीन खरीदनी शुरू कर दी। इसीलिए, यहाँ एक ओर आलीशान इमारते हैं तो दूसरी ओर झुग्गी - झोंपड़ियाँ और खपरैल मकान। प्लांट के कुछ दूरदर्शी कर्मचारियों व मजदूरों ने भी सेवा निवृत्ति के बाद उसी जगह बस जाने की योजना बना ली। 
     जब राघो बाबू की पत्नी को मालूम हुआ तो उन्होंने भी दबाव देकर उनसे चास में जमीन खरीदवाया था। गाँव में अपनी जाति की सामाजिक हैसियत को वह भूली नहीं थी। बोकारो इस्पात संयंत्र  में कार्य करते हुए उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में जबरदस्त बदलाव हुए थे। और  होता क्यों नहीं ! पिछड़ी जाति के एक खेत - मजदूर परिवार में जन्मा रघुआ अपनी मिहनत की बदौलत रघुआ से रघु और रघु से राघव सिंह तथा अब राघो बाबू बन चुका था। 
              रघुआ ने मैट्रिक की परीक्षा फर्स्ट डिवीजन में पास किया था। किंतु, अर्थाभाव के कारण आगे की पढ़ाई नहीं कर पाया। उन्हीं दिनों दक्षिणी बिहार (वर्त्तमान झारखण्ड राज्य) के एक शहर मारामारी में बोकारो इस्पात संयंत्र की स्थापना हुई थी और उसके निर्माण का कार्य बड़े जोर - शोर से चल रहा था , जहाँ उसके मामा के चचेरा भाई कार्यरत थे। अपनी बहन के आग्रह पर वे रघुआ उर्फ राघो बाबू को अपने साथ बोकारो ले आए। माराफारी से बोकारो स्टील सिटी बना इस्पात नगरी ने रघुआ की काया पलट कर रख दी। जूनियर ऑपरेटर की लिखित परीक्षा में शामिल होने के बाद उसके कदम आगे ही बढ़ते गए और वह अपनी मेहनत एवं काबिलियत की बदौलत असिस्टेंट जेनरल मैनेजर के पद तक को सुशोभित किया। इस तरह रघुआ ने राघो बाबू तक की कठिन सफर तय किया। आज भी राघो बाबू अपने घर - परिवार तथा गाँव - जवार के लिए एक उदाहरण हैं। 
        सेवा से निवृत्त होकर वे गाँव लौट जाना चाहते थे। जिस मिट्टी में वे जन्में थे, खेले - खाए थे, पढ़ाई - लिखाई की थी, उसके प्रति उनके मन में असीम अनुराग तो था ही  , वे खुद को उस मिट्टी का ऋणी भी समझते थे। अपनी चौथी पारी में वे अपने गाँव की टीम में रहकर ही बैटिंग करना चाहते थे। इसलिए पत्नी का प्रस्ताव सुनकर वे बुरी तरह झल्लाए थे, " देखो जी, नौकरी के चक्कर में मैं भले ही गाँव से दूर अपना जीवन बिताने के लिए मजबूर हूँ , किन्तु सेवा निवृत्ति के बाद मेरा वनवास खत्म हो जाएगा और हम......। "
कांति देवी ने बीच में ही बात काट दी, " गाँव चले जायेंगे, यही न  ! पर, जरा सोचिए , जब हम जवानी यहाँ गुजारेंगे तो बुढ़ापे में गाँव जाकर क्या हम सेट हो पायेंगे। कहते भी हैं कि पौधे को उखाड़ कर एक जगह से दूसरी जगह रोपा जा सकता है, किन्तु पेड़ को नहीं। वह तो सूख जाएगा। "
      उनके तर्क में दम था और उसी का परिणाम हुआ कि वे आज चास में हैं। 
दोपहर से शुरू हुई सर्दी - खांसी दिन बढ़ने के साथ - साथ बढ़ती गई और रात होते - होते राघो बाबू ने बिस्तर पकड़ ली। अब तो उनका पूरा बदन तेज बुखार से तप रहा था। पत्नी की लाख कोशिशों के बावजूद उन्होंने एक कौर भी नहीं खाया और चादर तानकर सो गए। 
कांति देवी पर तो जैसे आसमान टूट पड़ा। वह टीवी पर प्रचारित रोग के लक्षणों से मिलान करती और मन ही मन घबरा जाती। कहीं वही तो नहीं है  ! अब तो बीमारी का नाम लेने में भी उन्हें डर लगता है। सुना है कि यह बीमारी बुजुर्गों के लिए काल है। इनकी उम्र भी तो सत्तर के आस - पास है। हे भगवान  ! हे कुल देवता  ! इनकी रक्षा करना। कभी वह आंखें मूंदकर अने देवी - देवता को गोहराती तो कभी पानी गर्म करके उन्हें पीने को देती ‌। किसी ने कहा है कि गर्म पानी और चाय इसमें फायदा पहुंचाते हैं। 
   रात के नौ बज चुके थे। राघो बाबू का शरीर गर्म तवे की तरह तप रहा था। पास ही कुर्सी पर बैठी कांति देवी उनकी तेज चलती सांसों की घर्र घर्र आवाज सुन रही थी। जब भी वे खांसते उनकी छाती जोर जोर से धौंकनी की तरह चलने लगती। उन्होंने सुना है कि उस मुए बीमारी के ऐसे ही लक्षण होते हैं। उस भयानक बिमारी का ख्याल मन में आते ही वह चिंतित हो जाती। यदि वैसा कुछ हुआ तो वह क्या करेगी  ? सोचकर उनके हाथ पांव फुलने लगते। सर चकराने लगता। ....अड़ोस- पड़ोस को यदि मालूम हुआ तो वे लोग सरकारी अस्पताल को खबर कर देंगे। मुझे भी उठा कर कोरंटाइन सेंटर में डाल देंगे। राम जाने क्या होनेवाला है  !.... सोचते - सोचते उन्हें राघो बाबू पर बहुत गुस्सा आने लगा। एकदिन वगैर सब्जी के नहीं खा सकते थे क्या  ? सुबह से कह रही थी कि आलू - प्याज तक नहीं है, अभी ही जाकर ले आइए। लेकिन तब तो अखबार में घुसे रहे और जब ग्यारह बजने को आया तो निकल पड़े झोला लेकर। वैसे, आज का दिन ही मनहूस है। रोज बादल छाए रहता था। पर, आज सुबह से ही कड़ी धूप थी। आज ही तो लगा कि चैत - बैशाख का दिन है। इतनी कड़ी धूप कि चमड़ी जल जाए। 
टीवी पर उन्होंने सुना था कि इसके चपेट में यदि बुजुर्ग लोग आ गए तो उनके लिए खतरा ज्यादा है। बर - बाजार के लिए भी नौजवानों को जाना चाहिए और वह भी पूरी एहतियात बरतते हुए। पर, राघो बाबू और कांति देवी क्या करते  ? पिछले सात - आठ वर्षों से दोनों पति - पत्नी अकेले ही रह रहे हैं। जब से छोटे लड़के को दिल्ली सरकार में नौकरी हुई, वह सपत्नीक दिल्ली चला गया। बड़ा लड़का पहले ही घर से दूर पटना में रह रहा था। वह खुद तो बेरोजगार था। पर, उसकी पत्नी को बैंक में नौकरी मिल गई थी और वह पटने में पोस्टेड थी। एक अनजान शहर में वह अकेली कैसे रहती, सो पत्नी के साथ रहना उसकी मजबूरी बन गई थी। अपने खर्चे के लिए या मन बहलाव के लिए एक छोटी सी दूकान खोल थी। 
                             बातचीत के सिलसिले में कांति देवी ने एकदिन राघो बाबू से पूछा था कि बहू उनके शहर में तबादला कराकर नहीं आ सकती क्या? बस, उनका पारा सातवें आसमान पर , कहने लगे, " सुनो जी, तुमने कई बार मुझसे यह प्रश्न किया है और हर बार मैंने तुम्हें समझाया है कि यदि बेटा - बहू नही चाहते हैं तो क्या हम उनसे जबरदस्ती करें  ? इस मामले में राघो बाबू की समझ बिलकुल साफ थी। उनका मानना था कि हर व्यक्ति को अपना जीवन अपने ढंग से जीने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। आखिर पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वहन जोर - जबरदस्ती तो नहीं कराया जा सकता। किन्तु, कांति देवी उनकी इस बात से सहमत नहीं  हो पाती थीं। उनका मानना था कि घर के मुखिया की ढिलाई से परिवार में इस तरह की मनमानी बढ़ जाती है। पर, पति के डर से वह बोल नहीं पाती थी। 
कभी कभी वह सोचती है कि जब इस शहर में ही इतना बड़ा कारखाना है तो पढ़े - लिखे नौजवानों को यहाँ नौकरी क्यों नहीं मिलती? एक दिन उन्होंने यह बात राघो बाबू से पूछा दिया था। कुछ देर तक तो वे उनकी ओर घूरते रहे। फिर सरकार की लानत - मलामत शुरू कर दी। कांति देवी के पल्ले और तो कुछ नहीं पड़ा, बस इतना समझ पाई कि यह सब सरकार का किया धरा है। पांडे जी और राघो बाबू के बीच भी अक्सर सरकार की नीतियों को लेकर ही बहसें होती थीं। अभी वह इसी उधेड़बुन में लगी थी कि फोन की घंटी बजने लगी। फोन छोटे बेटे का था, दिल्ली से। उन्होंने फोन उठाते ही एक - एक कर सारी बातें बेटे को बता दी और सुबकने लगी। बेटे ने समझाते हुए कहा -- " माँ, हिम्मत से काम लो... इस लॉकडाऊन में कोई कहीं आ - जा भी तो नहीं सकता... घोड़ा- गाड़ी सब कुछ बंद है.... और अभी यह कहाँ पता कि पापा को हुआ क्या है, मामूली सर्दी - खांसी - बुखार भी तो हो सकता है! "
" पर, वे लोग तो नहीं न मानेंगे बेटा  ! जैसे ही मालूम होगा कि उठाकर ले जायेंगे और कोरंटाइन सेंटर में डाल देंगे..... अकेले रहते हुए आज से पहले कभी भी इतना नहीं डरी थी...। ", कहते - कहते वह फफक कर रो पड़ी। 
" रोओ मत मां, हिम्मत से काम लो.... और सुनो, किसी को भी यह बात जानने मत देना.... घर में सर्दी - बुखार की दवा रखी है क्या..? "
" क्या पता बेटा , देखना होगा... एक डिब्बे में कुछ दवाइयाँ रहती तो हैं... इनसे दिखला कर दे दूंगी। "
तभी उनके कान में एक फुसफुसाहट सुनाई दी। बहु की आवाज थी। वह पति को फोन काटने को कह रही थी। शायद अपने पति का इमोशनल होना उसे भयभीत कर रहा था। कहीं वह भी अन्य लोगों की तरह पैदल ही न अपने शहर को चल दे! 
" ठीक है माँ, मैं दो घंटे बाद फिर फोन करूँगा...। " , कहते हुए उसने फोन काट दिया। 
तभी राघो बाबू की घर्र - घर्राती आवाज आई --" किसका फो पड़े न था? "
कांति देवी उनकी आवाज सुनकर चौंक पड़ी। शाम से बेसुध पड़े राघो बाबू अभी होश में आये थे। इनके रोने और बोलने की आवाज से शायद उनकी तंद्रा भंग हुई थी। 
" छोटे का फोन था, अभी आपको कैसा लग रहा है  ? "
" क्यों..? मुझे क्या हुआ है..? ", तभी खांसी का दौरा पड़ा। खांसते - खांसते बोले, " तुम न फिजूल की बात सोचने लगती हो... जबकि तुम्हें पता है कि सरद - गरम से मुझे अक्सर ऐसा हो जाता है.... कुछ तो उम्र का भी तकाजा है। "
कांति देवी ने उनके माथे को छूते हुए कहा --" भगवान करें कि ऐसा ही हो  ! किंतु, माथा बहुत तप रहा है, कुछ खाइएगा..? " 
" नहीं, खाने की इच्छा नहीं है  । हाँ, गरम दूध में एक चम्मच हल्दी डालकर ले आओ  । " , कहते - कहते वे फिर खांसने लगे। 
                  ( क्रमशः जारी ) 




   




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