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साटा और गांती


**साटा और गाँती

सर्दियों के दिन थे । ऊनी स्वेटर - जर्सी में लिपटी मेरी पोती ने जिज्ञासावश पूछा -- " दादू ! बचपन में जब आप गाँव में रहते थे , तब सर्दियों में मेरी तरह आप भी स्वेटर - जर्सी पहनते होंगे ? "
इस प्रश्न ने अचानक ही मुझे टाईम मशीन पर बिठाकर पलक झपकते ही मुझे आधी सदी पीछे के समय में ला पटका । मेरी आँखों के सामने अचानक ही चलचित्र की तरह कई तस्वीरें घूमने लगीं ।
सूरज निकलने के इंतजार में बोरसी तापती माँ , बंगला (दुआर) पर सोने के लिए बिछा पुआल , गली में अलाव जलाकर उसके इर्दगिर्द बैठे पिता और चाचा लोग , घर के बाहर बने "ओटे" पर सूरज की पहली किरण की मद्धिम ताप में माँ के "साटा" की "गाँती" बाँधे , दाँत किटकिटाते हम सभी भाई बहन ।
तंद्रा भंग करते हुए पोती ने झकझोर कर कहा -- " बताइए न दादू ! "
" नहीं बिटिया , तब हमारे देश में इतनी मात्रा में स्वेटर और जर्सी नहीं बनते थे । हम तो माँ की " साटा " का " गाँती " बाँधते थे । जब कुछ और बड़े हुए तो बादशाही मियाँ की चादर ओढ़ने लगे । "
" साटा....! गाँती....! बादशाही मियाँ की चादर ! ये सब क्या होते थे दादू ? "
" इनके बारे में फिर कभी....। ", मैंने हँसते हुए कहा ।
अब मैं उसे इन विलुप्त हुए या समय के साथ रूप बदलते वस्त्रों के बारे में क्या और कैसे बतलाता !
तभी मेरे जेहन में उनके चहरे भी उभर आये , जो कहते हैं -- " सत्तर वर्षों में हुआ क्या है ? "


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मैं डरता हूँ ******** रोज पूछते हो भाई रवीश , क्या आप डरते हैं ? तो सुनलो मेरे भाई , मैं डरता हूँ , मैं डरता हूँ जीवन में ठहराव से समाज में बिखराव से धार्मिक पाखंड से जातीय भेदभाव से विश्वास के अभाव से मैं डरता हूँ, हाँ भाई , मैं डरता हूँ उनके मन की बात से अपनों के भीतरघात से गुंडों की बारात से ढोंगी बाबा की पांत से धर्म के चौखट पर बिछी राजनीतिक बिसात से मैं डरता हूँ , हाँ भाई , मैं डरता हूँ अच्छे मूल्यों के क्षरण से जनतंत्र के अपहरण से अपराधियों के हुजूम से जज के होते खून से झूठों के दरबार से विज्ञापनी अखबार से मैं डरता हूँ , हाँ भाई , मैं डरता हूं चूंकि मैं डरता हूँ इसलिए हर घड़ी अपने भीतर के डर से लड़ता हूँ और सारे डरे हुए लोगों के साथ सड़क पर उतरता हूँ । ----- कुमार सत्येन्द्र

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