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मनुआ - 55

मैं और मनुआ अपने शहीद साथी कॉ.वाई. प्रसाद की शहादत दिवस पर आयोजित संकल्प सभा से लौटकर ठेका मजदूरों की मांगों पर चर्चा कर ही रहे थे कि पांडे लंबे लंबे डग भरता हुआ आ धमका । " का मनुआ , मैं जो कहता था वह सही निकला न ? "" कौन सी बात पांडे भइया ? "" यही कि ऊ लोग कसाई होते हैं , कसाई ... पूरा का पूरा जल्लाद । देखा ससुरे ने बेचारी सरधा के शरीर के 35 टुकड़े कर दिए... बहुत प्यार करती थी वह उससे ... अपने मां - बाप को भी त्याग दिया था ... उस राच्छस के लिए...।" " अच्छा, तो आप उस आफताब पूनावाला की बात कर रहे हैं ", मनुआ ने मुस्कुराते हुए कहा , " पर , पांडे भइया ! वह वो नहीं है जो आप समझ रहे हैं । वह तो शायद पारसी है....। "" अरे , आरसी...पारसी कुछ भी हो , सब एके हैं ...।"" ई आपने ठीक कहा भइया ! अपराधियों की न कोई जाति होती है और न ही धरम । एक ने तो ....का नाम था उसका ... हां... राजेश गुलाटी , उसने तो अपनी पत्नी के शरीर के 72 टुकड़े करके फ्रीजर में रखे दिये थे । "" पता नहीं , तुम किसकी बात कर रहे हो ! ....अरे बुड़बक ! यही वह शैतान है जिसने लड़की के 35 टुकड़े करके फ्रीजर में रखा था और रोज एक टुकड़ा.....। "" जंगल में फेंकता था , यही न । इसने शायद राजेश गुलाटी का ही नकल किया है , पांडे भइया! इसमें धर्म वाली कौनो बात नहीं है । हमलोगों ने समाज में नफ़रत का इतना जहर घोल दिया है कि आदमी वहशी हो गया है , दरिन्दा हो गया है ....। अब देखिए न , उधर म.प्रदेश में तो एक लड़के ने तांत्रिक के चक्कर में पड़ कर अपनी मां की ही बलि दे दी । इतना ही नहीं , उसने बड़े प्रेम से उसका खून पीया , उसका मांस खाया ....।"" अब लगे तुम एने ओने की बात करने । अरे भकचोन्हर ! तुम इन लव जेहादियों को नहीं जानते हो......। "" अच्छा ...!  तो इस घटना से आप मर्माहत न होकर खुश हो रहे हैं , कि आपको लाश पर राजनीति करने का एक और  मौका मिल गया , है न ? "" लो , इस अफतबवा की भर्त्सना करने की बजाय तुम मुझ पर ही राजनीति करने का आरोप लगाने लगे । पता नहीं , तुमलोगों को अपनी कौम की चिंता क्यों नहीं होती ! "" होती है पांडे भइया ! पर , उससे ज्यादा अपने देश की चिंता होती है । देश में अमन और भाईचारे की चिंता होती है .....। "" अब तुम लगे राजनीति बतियाने । कुछ देर में हमारे प्रधानमंत्री जी की मलामत शुरू कर दोगे । वे देश को विश्वगुरु बनाने में आकाश पाताल एक किये हुए हैं और तुम लोग हो कि उन्हीं की टांग खींचने में सारी शक्ति झोंक रहे हो .....। "" क्या भइया, अभी भी नहीं दिख रहा है कि देश रसातल की ओर जा रहा है ! शिक्षा , स्वास्थ्य , रोजी - रोजगार सब का बुरा हाल है । महंगाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही है । आखिर आप कब तक शुतुरमुर्ग बने रहिएगा...? "" दूर बुड़बक ,  सगर रतिया , एके बतिया ! तुमलोग नहीं सुधरोगे....। ", कहते हुए पांडे ने मैदान छोड़ दिया । हम अपनी बातचीत के टूटे सिरों को ढूंढने लगे ।

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मैं डरता हूँ

मैं डरता हूँ ******** रोज पूछते हो भाई रवीश , क्या आप डरते हैं ? तो सुनलो मेरे भाई , मैं डरता हूँ , मैं डरता हूँ जीवन में ठहराव से समाज में बिखराव से धार्मिक पाखंड से जातीय भेदभाव से विश्वास के अभाव से मैं डरता हूँ, हाँ भाई , मैं डरता हूँ उनके मन की बात से अपनों के भीतरघात से गुंडों की बारात से ढोंगी बाबा की पांत से धर्म के चौखट पर बिछी राजनीतिक बिसात से मैं डरता हूँ , हाँ भाई , मैं डरता हूँ अच्छे मूल्यों के क्षरण से जनतंत्र के अपहरण से अपराधियों के हुजूम से जज के होते खून से झूठों के दरबार से विज्ञापनी अखबार से मैं डरता हूँ , हाँ भाई , मैं डरता हूं चूंकि मैं डरता हूँ इसलिए हर घड़ी अपने भीतर के डर से लड़ता हूँ और सारे डरे हुए लोगों के साथ सड़क पर उतरता हूँ । ----- कुमार सत्येन्द्र

फैसला

जब घास का गट्ठर लिए वह घर के दरवाजे पर पहुँचा तो सामने आंगन में गोबर पाथती  सोनमतिया  पर उसकी नजर पड़ी  । उसने चुपचाप आगे बढ़कर  आँगन  के एक कोने में सिर के बोझ को हल्का  किया और  धम्म से जमीन पर बैठकर  सुस्ताने लगा  । सोनमतिया एकटक  उसके  चेहरे को  देखे जा रही थी । वह खामोश  माथे पर  हाथ  रखे बैठा था ।          जब चुप्पी असह्य हो गई तो सोनमतिया ने पूछा, " कहाँ थे आज दिनभर..? न तो मलिकवा के काम में गए और न ही घर खाना खाने आए? " " गला सूखा जा रहा है, कुछ पानी - वानी भी दोगी या जवाब सवाल ही करती रहोगी। " -- माथे  पर चू आए पसीने को गमछे से पोंछते हुए उसने पत्नी को झिड़का।  तेजी से वह उठी और हाथ धोकर कोने में रखे घड़े से पानी ढालकर लोटा उसकी ओर बढ़ाते हुए फिर सवाल किया, " सुना है, आज तुम मलिकवा से लड़ आए हो  ? " " अरे, हम क्या लड़ेंगे, हम तो ठहरे जन्मजात गुलाम! हमारी क्या बिसात जो मालिकों से लड़ें - भिड़ें  ! " -- डूबती आवाज में बोला हरचरना और लोटा लेकर गटागट एक ही सांस में पूरा पानी पी गया।  अब सोनमतिया को बुधिया काकी की बातों पर अविश्वास न रहा। खान

कोविड -- 19

कोशिश -- 19 " सुनती हो जी....! कहाँ हो  ? " " क्या हुआ  ? कीचन में हूँ..। " " अच्छा...! चाय बना रही हो क्या  ? " " हाँ जी, दिन भर बैठे - बैठे और क्या करें  ! " " ठीक है, एक कप और बढ़ा देना  ..! " " क्यों..? इस लॉक डाउन में कौन आ रहा है  ? " " अरे, और कौन आएगा.... सामने वाले पांडे जी ने फोन किया है.... वे ही आ रहे हैं  । " -- हंसते हुए राघो बाबू ने पत्नी को जवाब दिया।  चाय के भगौने में चीनी डालते हुए कांति देवी का मुंह कड़वा - सा हो गया। पांडे जी के आने से वह खुश नहीं होती है। वे जब भी आते हैं, फिजूल की बहस में उलझ जाते हैं। और इस लॉक डाउन में जबकि टीवी पर दिन - रात सबको अपने - अपने घर में रहने की हिदायत दी जा रही है, वे रोज ही शाम को टपक जाते हैं। इस बात को लेकर राघो बाबू से कल भी इनकी खूब तकरार हुई थी।  " जब बाहरी आदमी का घर में आना - जाना लगा ही रहेगा तो लॉक डाउन  का क्या मतलब  ? "-- पांडे जी के जाते ही कांति देवी ने कहा था । " अरे , लॉक डाउन  का मतलब यह थोड़ी ही है कि आप अड़ोस - पड़ोस  से भी विमुख